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________________ भक्ति रत्नावली : एक अनुशीलन : 37 क्वचिद्धया नासक्तो विषय सुविभक्तो भव हर, स्मरते पादाब्जं जनि हर समेष्यामिविलयम् ।।१३ वास्तव में 'भक्ति रत्नावली' आचार्य प्रवर श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज की ‘गागर में सागर भरने वाली संस्कृत भाषा में रचित अनुपम कृति है। भरत मुनि ने शांतरस को सर्वप्राणी सुखहित माना है, क्योंकि इस रस में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापारों से विरत हो आत्म संस्थित हो जाती हैं। पूज्यश्री की यह रचना भक्ति से परिपूर्ण है तभी सभी प्राणियों के कल्याण के लिए समर्पित है अत: इसमें शान्त रस का प्रयोग देखने को मिलता है। इसमें गम्भीर ज्ञान तथा तपस्या का परिपाक है। भाषा भाव तथा छन्दोपमा की दृष्टि से यह भक्ति साहित्य की अनुपम रचना है। इसमें वसंततिलका छन्द का प्रमुखता से उपयोग किया गया है। साथ ही अनुष्टुप्, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित छन्द भी देखने को मिलते है। बालाचार्य योगीन्द्रसागर जी महाराज ने अपनी भक्ति रत्नावली में वर्णन को प्रभावक एवं शोभन बनाने के लिए शब्दालंकार और अर्थालंकारों का सुष्ठु सनिवेश किया है। इसमें उपमा, रूपक और अनुप्रास प्रमुख हैं। इसके अलावा कहीं-कहीं उदात्त अलंकार का प्रयोग भी देखने को मिलता है। भक्ति रत्नावली ग्रन्थ में प्रसाद गुण की छटा परिलक्षित होती है, साथ ही माधुर्य गुण का भी सुन्दर प्रयोग किया गया है। पूज्य श्री की इस रचना में वैदर्भी रीति का विशेष प्रयोग दृष्टिगत होता है, क्योंकि सुकुमारता, सरलता एवं मधुरता की दृष्टि से इस रीति का विशेष महत्त्व है। 'भक्ति रत्नावली' में अध्यात्म और दर्शन के दुरूह तत्त्वों को सहज, सरल और बोधगम्य बनाने के लिए सुललित शैली में विश्लेषित करने का सफल और प्रशंसनीय उपक्रम किया गया है।
SR No.525088
Book TitleSramana 2014 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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