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36 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 तथा आचार्य भक्ति के साथ निर्वाण भक्ति की रचना की है। पार्श्वदास अनूदित ‘दशभक्ति' भी स्मरणीय है। विक्रम की द्वितीय शताब्दी में आचार्य उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र में श्रद्धा, विनय, वैय्यावृत्य सम्बन्धी अनेक सूत्रों का निर्माण किया। तीर्थंकरत्व नामकर्म के उदय में भक्ति को कारण बताया है। आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में श्रद्धा, विनय, वैय्यावृत्य, जिनेन्द्र और गुरु भक्ति पर भी समीचीन प्रकाश डाला है। सच्ची भक्ति के कारण वे परम बने थे। आचार्य योगीन्दु का छठीं सदी का परमात्मप्रकाश, आचार्य यतिवृषम की 'तिलोयपण्णत्ती' तथा आचार्य शिवकोटि की सातवीं सदी की 'भगवती आराधना' महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक रचनायें हैं। इसी परम्परा में पूज्य आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज द्वारा रचित 'भक्तिरत्नावली मुक्तक काव्य का अनुपम उदाहरण है। कविहृदय आचार्यश्री ने अपने धार्मिक हृदय की भक्ति-वना को अभिव्यक्त किया है। आचार्यश्री ने ३४वें पद्य में कहा है
"भव दुःख घरट्टेन, पिष्यन्ते सर्व मानवाः,
दुःखमुक्त सदानन्दः, जिनभक्तो हि केवलः।।"१२ संसार के सभी प्राणी दुःखरूपी चक्की में पिसते जा रहे हैं। केवल नित्यानन्द स्वरूप जिनभक्त ही दुःख से बचे हुए हैं। 'भक्ति रत्नावली' के बासठवें पद्य में आराध्य के प्रति समर्पण, भवसागर से तारने की याचना, अनन्य भक्तिभाव, अपने दोषों का उद्घाटन, उपास्य के गुणों का स्मरण, उपालंभ द्वारा अपने उद्धार की कामना, 'भक्ति रत्नावली' की विशेषता है। स्वयं कवि के गद्यानुवाद में- “हे नाथ! मुझ पर कृपा कीजिए कि मैं विषयों से विरक्त और ध्यानमग्न होकर, आपके चरणारविन्दों का स्मरण करता हुआ तन्मय हो जाऊँ।
"कदा श्रृङ्गेस्फीते मुनिगरण पदीते हिम नगे, द्रुमा वीते शीते सुर मधुर गीते प्रति वसन् ।