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भक्ति रत्नावली : एक अनुशीलन : 35 वस्तुत: ‘भक्तिरत्नावली' बालाचार्य श्री के गम्भीर ज्ञान व तप से प्रसूत है। भाव भाषा एवं छन्दोपमा की दृष्टि से यह मुक्तक काव्य रचना भक्ति साहित्य की निधि है, मानव मात्र के मोक्ष पक्ष में पाथेय स्वरूप है। आत्मा निश्चित ही शुद्धभक्ति परम्परा से मोक्ष का साधन है, आनन्दानुभूति प्रदान करती हैं। जिनमें नाम कीर्तन में तत्पर चाण्डाल भी अपने समस्त कलिमल का नाश करके सम्पूर्ण संसार को निश्चय ही पवित्र कर देता है, वे दीनबन्धु हमारे सभी पापों को अपनी दया दृष्टि से भस्म करके मेरे सामने प्रकट हों ॥३८॥ स्वयं को संबोधित करते हुये कवि की मोक्ति है- अरे चित्त! तू निरन्तर जिनेन्द्र भगवान के चरणों का स्मरण कर, जिससे तू भवसागर से पार जा सकेगा। पुत्र, कुल तथा अन्य कोई तेरे सहायक नहीं है। मित्र बन सबको तू मृगतृष्णा के तुल्य समझ ॥४०॥९ कवि का दृढ़निश्चय है-भलीभांति निश्चित की हुई बात मैं आपसे कहता हूँ मेरे वचन अन्यथा नहीं हैं, जो मनुष्य भगवान का भजन करते हैं वे अत्यन्त दुस्तर संसार सागर से तर जाते हैं ॥३३॥१० आराध्य के प्रति आत्मसमर्पण, भवसागर से तारने की याचना, अनन्य भक्ति-भाव, अपने दोषों का उद्घाटन एवं उपास्य के गुणों का स्मरण, उपालम्भ द्वारा अपने उद्धार की कामना भक्ति रत्नावली की विशेषता है। स्वयं कवि के शब्दों में (गद्यानुवाद) में, “हे नाथ! मुझ पर कृपा कीजिए कि मैं विषयों से विरक्त और ध्यान में मग्न होकर आपके चरणारविन्दों का स्मरण करता हुआ तन्मय हो जाऊं ॥६२॥११ बालाचार्य योगीन्द्रसागरजी महा. ने अपने हृदयकमल, आठ पंखुरियों वाले (अष्टदल कमल), की प्रत्येक पंखुरी पर तीन तीर्थंकर विराजित कर चौबीस तीर्थंकरों के प्रति समर्पित भाव रखते हुए भक्ति द्वारा स्तुति करके सर्वज्ञ परमात्मा के प्रति स्वयं भक्ति सरिता में अवगाहन करके अपने शिष्यों जिनेन्द्र भक्तों के परिणामों की विशुद्धि हेतु इस ग्रन्थ की रचना की है। 'भक्ति रत्नावली' अनुपम मुक्तक काव्य है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ईसा की प्रथम शताब्दी में क्रमश: सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति