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20 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014
में दृढ़ रहने के लिए उपर्युक्त भावनाओं को सदा स्मरण रखना
चाहिये। ४- ब्रह्मचर्याणुव्रत -
आचार्य समंतभद्र का कथन है - न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतेर्यत।
सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषानामापि।१४ अर्थात् जो पाप के भय से परस्त्री के साथ काम-भोग न स्वयं करते हैं और न अन्य से करवाते हैं, अपनी स्त्री में ही सन्तोष रखते हैं, वे ब्रह्मचर्याणुव्रतधारी
ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचारआचार्य उमास्वामी का कथन है
‘परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीता
परिगृहीतागमनानंगक्रीड़ा कामतीव्राभिनिवेशा:१५ अर्थात परविवाहकरण, परिगृहीतेत्वरिकागमन, अपरिगृहीतेत्वरिकागमन, अनंगक्रीड़ा तथा कामतीव्राभिनिवेश-ये पाँच ब्रह्माणुव्रत के अतिचार
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परविवाहकरण- अपने पुत्र और पुत्रियों के अतिरिक्त अन्य जनों के पुत्र-पुत्रियों का विवाह कराना परविवाहकरण नामक ब्रह्मचर्याणुव्रत का प्रथम अतिचार है। परिगृहीतेत्वरिकागमन- व्यभिचारिणी स्त्री, जिसका स्वामी हो, उसके घर आना-जाना या उससे बोलना, उठना-बैठना, लेन-देन आदि का व्यवहार रखना परिगृहीतेत्वरिकागमन अतिचार है। अपरिगृहीतेत्वरिकागमन- स्वामी रहित व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ आना-जाना या उससे बोलना, उसके साथ उठना