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________________ ३. ४. जैन साधना में श्रावक धर्म : 19 विरुद्ध राज्यातिक्रम- राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, राजाज्ञा के विरुद्ध कार्य करना तथा राज्य के नियमों का उल्लंघन करने वाले को सहायता देना विरुद्धराज्यातिक्रम नामक अचौर्याणुव्रत का अतिचार है। उपर्युक्त पाँच अतिचार अचौर्याणुव्रत में दोष उत्पन्न करते हैं। अतएव अचौर्याणुव्रतधारी श्रावक को इन दोषों से दूर रहना चाहिये । २. प्रतिरूपक व्यवहार- बहुमूल्य वस्तु में कम मूल्य की. वस्तु मिलाकर बहुमूल्य के भाव से बेचना या ऐसी बातों की शिक्षा अन्य को देना प्रतिरूपक व्यवहार नामक अतिचार है। अचौर्याणुव्रत की पांच भावना"शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरण भैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पंच" |१३ तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त श्लोक से अचौर्याणुव्रत की पंच - भावना - शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि तथा सर्वधर्माविसंवाद का ज्ञान होता है १. ३. शून्यागार - दुष्ट, व्यसनी, ईर्ष्या रखने वाले, कलह करने वाले पुरुष रहित स्थान में निवास करना शून्यागार भावना है। विमोचितावास- जिस मकान में दूसरे का झगड़ा न हो, वहाँ निराकुलता पूर्वक रहना विमोचितावास है। परोपरोधाकरण- अन्य के स्थान पर बलपूर्वक प्रवेश न करना, तथा ठहरे हुए व्यक्ति को बलपूर्वक हटाने का प्रयास न करना परोपरोधाकरण भावना है। भैक्ष्यशुद्धि- अपने कर्मानुसार प्राप्त हुए भोजन को लालसा रहित, सन्तोष सहित ग्रहण करना तथा अभक्ष्य भोजन का त्याग करना, भैक्ष्य-शुद्धि है। सर्वधर्माविसंवाद- सहधर्मी पुरुषों से कलह - विसंवाद न करना सर्वधर्माविसंवाद भावना है। श्रावक को अचौर्य (अस्तेय) अणुव्रत
SR No.525088
Book TitleSramana 2014 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Rahulkumar Singh, Omprakash Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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