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14 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2/अप्रैल-जून 2014 उपर्युक्त पाँचों अतिचारों को अहिंसाणुव्रत में दोष उत्पन्न करने वाला जान कर सर्वथा त्याग देना अनिवार्य है। अहिंसाणुव्रत की पाँच भावनायें:
"वाङ्मनोगुप्तीर्यादानर्निक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंच।" मोक्षशास्त्र में उल्लिखित उपर्युक्त श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समीति, आदान-निक्षेपण समिति और
आलोकितपान भोजन ये पाँच भावनायें अहिंसाणुव्रत की हैं, उनके विषय में विशेष विवरण निम्नवत है१. वचन गुप्ति- हास्य, कलह, विवाद, अपवाद, अभिमान तथा
हिंसा उत्पन्न करने वाले वचनों से विरति वचन गुप्ति है। मनोगुप्ति- मन की प्रवृत्ति को विषय और कषायों से हटाना मनोगुप्ति है। ईर्या समिति- त्रस तथा स्थावर जीवों को ध्यान में रखते हुए गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना चाहिये। आदान-निक्षेपण समिति- प्रत्येक वस्तु सावधानीपूर्वक उठाना, रखना चाहिए जिससे कि स्वयं को तथा अन्य को किसी भी प्रकार की शारीरिक पीड़ा न हो। आलोकितपानभोजनसमिति- दिन में नेत्रों से भलीभाँति देखकर एवं शोधकर आहार करना एवं जलादि पीना आलोकितपान भोजन समिति है। उपर्युक्त पाँच भावनाओं को सदा ध्यान में
रखने से अहिंसाणुव्रत और अधिक दृढ़ होता है। २. सत्याणुव्रत- रत्नकरण्डश्रावकाचार में उल्लिखित है कि व्यक्ति स्थूल असत्य न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बोलने को कहे और ऐसे वचन भी न बोले जिससे दूसरे व्यक्ति पर संकट आ जाय, ऐसे समय पर शान्त रहना ही उचित है