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जैन साधना में श्रावक धर्म : 15
स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यद् तद् वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमण ।। '
हिंसा के समान असत्य भी बहुत बड़ा पाप है एक झूठ के बोलने पर उसको प्रामाणिक बनाने के लिए सैकड़ों झूठे प्रमाण ढूढ़ने पड़ते हैं, जिससे व्यक्ति की मानसिकता कुण्ठित हो जाती है और उसे शारीरिक रूप से भी हानि पहुँच सकती है। असत्यवादी दूसरों को मानसिक एवं शारीरिक कष्ट पहुँचाकर स्वयं द्रव्य एवं भाव हिंसा का भागीदार होता है । एक श्रावक का यह कर्त्तव्य है कि वह असत्य वचन न बोले किन्तु जिस वचन से पर जीव का घात हो, ऐसे हिंसक वचन भी न बोले। जो वचन दूसरों को कटु लगे, क्रोध, उद्वेग, भय, कलह उत्पन्न करें, ऐसे कर्कश एवं निष्ठुर वचन न बोले । जो वचन दूसरों के गुप्त भेद को प्रकट करते हैं या जिससे दूसरों को हानि पहुँचने की सम्भावना हो, ऐसे वचन भी न बोले। जिस वचन से दूसरे व्यक्ति पर आपत्ति आये, ऐसे अवसर पर मौन धारण से व्यक्ति की प्रामाणिकता बनी रहती है क्योंकि वचन प्रमाण से ही जगत् में व्यक्ति प्रामाणिक होता है । वचन की अप्रामाणिकता से उसे संसार में सम्मान नहीं प्राप्त होता है अतएव सत्याणुव्रतधारियों को किसी भी बात को कहने में शब्दों पर विशेष ध्यान देना चाहिए । सदा दूसरों के हितकारी, प्रमाणरूप, सन्तोष प्रदान करने वाले, धर्म को प्रकाशित करने वाले वचन का प्रयोग करना चाहिए। कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में उल्लिखित है कि जो सत्यव्रत का पालन करने वाला है, वह हिंसक वचन नहीं बोलता, दूसरे की गोपनीय बात को नहीं प्रकट करता, हितमित सन्तोषदायक और धर्म प्रकाशक वचन बोलता है -
हिंसा - वयणं ण वयदि कक्कस पि जो ण भासेदि । रि-वयणं पितहा भासदे गुञ्झ - वयणं पि । । हिद - मिद - वयणं भासदि संतो करं तु सव्व जीवाणं । धम्म- पयासण - वयणं अणुव्वदी हौदि सो बिदिओ । ।
भगवतीसूत्र में उल्लिखित है कि जल, चन्दन, चन्द्रमा, मोती और चन्द्रकान्तमणि भी उतने आनन्ददायक नहीं हैं, जितने अर्थ सहित