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कालिदास के रूपकों में प्रयुक्त प्राकृत का वैशिष्ट्य : 7 सम्भवत: यह रहा हो कि भास के समय तक स्त्री एवं निम्न पात्रों के गीतों में महाराष्ट्री के प्रयोग की संस्कृत नाटकों की परम्परा तब तक सुदृढ़ न हुई हो। यह भी हो सकता है कि भरत की दृष्टि में मागधी इतनी हेय नहीं थी, जितनी कि बाद के संस्कृत नाटककारों की दृष्टि में हो गई। क्योंकि शनैः शनैः बौद्धधर्म एवं उससे सम्बन्धित भाषा के प्रति एक हेय दृष्टि विकसित हो गई थी। कालिदास अपने मध्यम श्रेणी के पात्रों से तो महाराष्ट्री में ही पद्य रचना करवायें है जबकि भास वैसे ही पात्रों से मागधी बुलवाते हैं। कालिदास ने मागधी का प्रयोग निम्न श्रेणी के पात्र धीवरादि से करवाया है। अत: स्पष्ट है कि कालिदास के समय तक संस्कृत नाटकों में महाराष्ट्री गीतों की परम्परा अत्यन्त सुदृढ़ हो गई थी।
कालिदास के रूपकों में प्रयुक्त भाषाओं के विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनके समय में शिक्षित एवं उच्च श्रेणी के लोगों की भाषा संस्कृत तथा जनसाधारण की भाषा प्राकृत रही होगी। स्त्रियों का स्थान समाज में हेय था। वे अपना सम्भाषण प्राकृत में ही करती थीं। इसी प्रकार की परम्परा भास के समय भी प्रचलित थी इसीलिए कालिदास ने भी शिष्ट पात्रों से शुद्ध संस्कृत एवं शेष पात्रों से प्राकृत का प्रयोग कराया। अपने रूपकों को अत्यधिक स्वाभाविक एवं यथार्थोन्मुख बनाने के उद्देश्य से ही कालिदास ने विभिन्न नाटकीय भाषाओं के प्रयोग कराये हैं। यह भाषा वैविध्य शास्त्रानुमोदित ही है। आचार्य धनञ्जय के अनुसार नाटकों में स्त्री पात्र एवं अधम जाति के अकुलीन पात्र भी प्राकृत ही बोलते हैं तथा पिशाच और अत्यन्त अधम पात्रों की भाषा पैशाची या मागधी होती है। जो नीच पात्र जिस देश का वासी है, उसी देश की बोली के अनुसार उसकी पाठ्यभाषा रूपक में नियोजित की जानी चाहिए। वैसे कभी उत्तम पात्र की भाषा में किसी कारणवश व्यतिक्रम हो सकता है। उत्तम पात्र प्राकृत बोले अथवा अधम पात्र संस्कृत बोले। पुरूरवा प्रियावियोग से उन्मत होकर प्राकृत में ही सम्भाषण करता है। वस्तुत: कालिदास का भाषा-प्रयोग पर असाधारण अधिकार है। इसीलिए अपने पात्रों से भाषा का प्रयोग कराते समय देश, काल एवं परिस्थितियों का हमेशा ध्यान रखते थे। जो व्यक्ति जिस कोटि का है, वह वैसी ही