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________________ जैन दर्शन में प्रमेय का स्वरूप एवं उसकी सिद्धि : ४५ . बिना रहने की वृत्ति भी दिखती नहीं है। . आकाश के सप्रदेशत्व को स्वीकार करने के कारण 'उभयव्यतिरिक्त आकाश की वृत्ति है' यह कहना भी असिद्ध है। नि:प्रदेशत्व मानने पर अनेक दोष प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ- जिस देश से आकाश विन्ध्याचल के साथ संयुक्त है क्या उसी प्रदेश से हिमाचल, मन्दराचल आदि के साथ भी संयुक्त है, अथवा अन्य प्रदेश से? यदि उसी प्रदेश से संयुक्त मानें तो विन्ध्य, हिमाद्रि आदि का 'एकत्र अवस्थान' का प्रसंग आता है क्योंकि इसके बिना निःप्रदेश एक आकाश का संयोग घटता नहीं है। यदि अन्य प्रदेश से ऐसा स्वीकार करें तो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि आकाश का सदेशत्व स्वीकार किया गया है। उपरोक्त सन्दर्भ में यहाँ पूर्वपक्षी (वैशेषिकादि) का अभिमत द्रष्टव्य है- यदि 'सनातन (नित्य), परमार्थ सत्, व्यापी, एक और अवयव' ऐसी सामान्य वस्तु न हो तो देशकाल-स्वभाव भेद से भिन्न घट, शराव (शिवक), उदंचन आदि विशेषों के बारे में सर्वत्र मृत्तिका-मृत्तिका ऐसे शब्द और ज्ञान (बद्धि) अभिन्न रीति से नहीं जाने जायेंगे। इसी तरह न ही हिम, तुषार, करक, उदक, अंगार, तुषाग्नि, ज्वालाग्नि, झंझावात, चक्रवात, उत्कलिका, पवन, उदुम्बर इत्यादि अत्यन्त भिन्न (जाति भेद से) अनेक विशेषों के बारे में एकाकार बुद्धि होती है। एकाकार शब्द भी विद्यमान नहीं रहता, इसीलिए यथोक्त प्रकार से अभिन्न बुद्धि और शब्द दोनों की प्रवृत्ति का कारण रूप (जिसके ऊपर आधार है) वस्तु-सत् सामान्य की सत्ता का आश्रय लेना चाहिए। आचार्य हरिभद्र का अभिमत है, "हम यथोक्त शब्द और बुद्धि इन दो की प्रवृत्ति के निमित्त (कारण) का विरोध नहीं करते हैं, वरन एकादि धर्मयुक्त परिकल्पित सामान्य का निबन्धन करते हैं। जिस प्रकार विशेष वृत्ति के योग के बिना घट (सामान्य) सिद्ध ही नहीं होता, यह बात पूर्व में निर्देशित की जा चुकी है।'' यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यथोक्त शब्द और बुद्धि की प्रवृत्ति का कारण क्या है? यथोक्त शब्द और बुद्धि की प्रवृत्ति का कारण अनेक (सत्व-ज्ञेयत्वादि) धर्मात्मक वस्तु का समान परिणाम है। सामान्य वृत्ति की परीक्षा में उत्पन्न दो विकल्प रूप दोष की उत्पत्ति यहाँ सम्भव नहीं है क्योंकि समान परिणाम उससे विलक्षण है (एकादि धर्मक सामान्य से विलक्षण है) और तुल्यज्ञान के परिच्छेद्य जो वस्तु स्वरूप है वह सामान्य परिणाम है। यह ही सामान्यभाव रूप से घट सकता है क्योंकि 'जो समान का भाव है वह सामान्य है, समान के द्वारा वैसा (समानतया) हो सकता है', ऐसा अन्वयार्थ किया गया है। अर्थान्तरभूत भाव का उसके बिना भी उसके समानत्व में
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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