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________________ ४४.: श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ करने में समर्थ है क्या उसी स्वभाव से ही सजातीय भेद को भी ग्रहण करने में समर्थ है अथवा किसी अन्य स्वभाव से। यदि उसी स्वभाव से समर्थ हो तो विजातीय भेद के ग्रहण की ही तरह उससे ही सजातीय भेद का भी ग्रहण यथार्थरीति से होता है अथवा इससे उल्टा भी होता है तथा ऐसा होने से सजातीय-विजातीय-भेदग्रहण रूप से समर्थ और असमर्थ दोनों में अविशेष (एक स्वभाव) हुआ क्योंकि उसके अनुभव से हुए संस्कार के उद्रेक के बलवान होने का जो प्रसंग है वह उभय में समान ही रहेगा और विजातीय भेद-ग्राहक विकल्प की तरह सजातीय भेद-ग्राहक विकल्प भी होगा अथवा इससे उल्टा भी होगा क्योंकि इस अनुभव से हए संस्कार रूप विकल्प का कारण उभयत्र समान है। अतः जिस प्रकार वस्तु विजातीय से व्यावृत्त होती है उसी प्रकार सजातीय से भी व्यावृत्त होती है। इसीलिए 'घट घट है' ऐसी सामान्याकार बुद्धि होती है जिसका कारण अनुगत प्रत्यय होता है। इसी तरह उनमें व्यावृत्त प्रत्यय भी होता है, अत: पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होता है। अनेकान्तवादप्रवेश में पूर्वपक्ष प्रकरण के अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र सामान्य-विशेषात्मक वस्तु पर पूर्वपक्षी (वैशेषिकादि) के अभिमत का उल्लेख करते हुए कहते हैं,२४ "वस्तु का सामान्य-विशेषरूप भी प्रतिक्षिप्त (निन्दित) है एवं मानने योग्य नहीं है। उदाहरणार्थ- सामान्य एक है और विशेष अनेक हैं, सामान्य नित्य है और विशेष अनित्य हैं, सामान्य निरवयव है और विशेष सावयव हैं, सामान्य अक्रिय है और विशेष सक्रिय हैं, सामान्य सर्वगत है और विशेष असर्वगत हैं। अत: इस तरह जब पदार्थ सामान्यरूप है तो विशेषरूप किस प्रकार से हो सकता है और यदि विशेषरूप है तो सामान्यरूप किस प्रकार से हो सकता है?" अत: वह या तो विशेषरूप होगा या सामान्यरूप। इस प्रकार वस्तु का सामान्य-विशेषात्मक होना युक्तिसंगत नहीं है। प्रत्युत्तर स्वरूप आचार्य हरिभद्र कहते हैं जो पूर्व में कहा गया था, 'सामान्य एक है और विशेष अनेक हैं, इत्यादि' वह भी अयुक्त है क्योंकि ऐसा स्वीकरण (जैनों द्वारा) नहीं होता है। युक्तिरहित होने से हम (जैन) ऐसा सामान्य मानते ही नहीं हैं। उदाहरणार्थ- वह एकादि स्वभाव वाला सामान्य दिशा, देश, काल और स्वभाव से भिन्न अनेक विशेषों में सर्वात्मना रहता है अथवा एकदेश से रहता है। सर्वात्मना रहना सम्भव नहीं है क्योंकि विशेष अनन्त हैं अतः अनन्त सामान्य मानने का प्रश्न आएगा अथवा एक विशेष से व्यातिरिक्त अन्य विशेष सामान्य शून्य हो जाएँगे और सामान्य को अनन्त मानने पर. तो सामान्य की एकता का विरोध होगा। 'एक देश से रहता है' ऐसा भी नहीं कह सकते क्योंकि तब सामान्य को सदेश मानना पड़ेगा। इस तरह सामान्य आकाश के सदृश व्यापक हो रह नहीं सकता। सम्पूर्ण रीति और देश के
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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