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________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ उपयोग नहीं है, अन्यथा 'समानों का' ऐसे अभिधान का अभाव होने से उसकी कल्पना अयुक्त है। अविनाभावी भेद हो तो समानत्व (तुल्यत्व) होता है, भेद का अभाव हो तो सर्वथा एकत्व होने से समानत्व की अनुपपत्ति होती है और ऐसा समान परिणाम ही बुद्धि-शब्द-द्वय की प्रवृत्ति का निमित्त है। ऐसा होने से जो समान परिणाम एक विशेष घटादि में है वह ही दूसरे विशेष (शरावादि) में नहीं है।३७ ऐसे सामान्य के विचार में कथित देशरूप और सम्पूर्णरूप भेदद्वय का दोष भी नहीं हो सकता है तथा ऐसा होने पर विशेषों के परस्पर विलक्षण होने से समान बुद्धि और शब्द द्वय की प्रवृत्ति का अभाव भी सम्भव नहीं है क्योंकि वैलक्षण्य होने पर भी समान परिणाम के सामर्थ्य से प्रवृत्ति होगी। यहाँ विशेष बुद्धि असमान परिणाम के कारण से है। यह यथोदित बुद्धि और शब्दद्वय की प्रवृत्ति है। कहा भी गया है, “वस्तु (घटादि) का जो समान परिणाम (मृदादि) है वह ही सामान्य है और असमान वस्तु (ऊर्ध्वत्वादि) विशेष है और वस्तु ऐसे अनेकरूप (सामान्य-विशेषात्मक) वाली है।८ इस प्रकार वस्तु जिस कारण से सामान्यरूप है उसी कारण से ही विशेषरूप है क्योंकि समान परिणाम से असमान परिणाम अविनाभूत है। जिस कारण से विशेषरूप है उसी कारण से सामान्यरूप है क्योंकि समान परिणाम से समान परिणाम विनाभूत है। समान और असमान परिणाम तथा उभय के स्वसंवेदन से उभयरूप होने के कारण दोनों (समान और असमान परिणाम) का विरोध भी नहीं है क्योंकि वे उभयरूप तथा व्यवस्थापित हैं। एक अन्य शंका की जाती है कि वस्तु के सामान्य-विशेषात्मक होने से सकललोक प्रसिद्ध व्यवहार नियम के उच्छेद का प्रसंग होगा। यथा- विष, मोदक आदि व्यक्ति से अभिन्न एक सामान्य होता है और तब (यदि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक हो तो) विष विष नहीं होगा तथा मोदक मोदक ही नहीं होगा क्योंकि विष मोदकादि से अभिन्न सामान्य से व्यातिरेक नहीं है और मोदक भी विषादि से अभिन्न सामान्य से व्यतिरेक नहीं है।३९ उक्त आक्षेप भी निरर्थक है क्योंकि जैन दार्शनिकों द्वारा उक्त प्रकार के सामान्य का स्वीकरण ही नहीं होता वरन् वे समान परिणाम को ही सामान्य कहते हैं क्योंकि वह भेद से अविनाभूत है। इसलिए जो विष से अभिन्न है वह ही मोदकादि से भी अभिन्न नहीं है क्योंकि उसके सर्वथा एकत्व से समानत्व का अयोग है। यह भी नहीं कह सकते कि समान परिणाम भी प्रतिविशेष (घट-शरावादि) अन्य है। इसलिए असमान परिणाम की तरह उसके
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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