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भारतीय चिन्तन में मोक्ष तत्त्व : एक समीक्षा : ३ जैनदर्शन में माना गया है कि पहले सभी जीव कर्मबन्धनयुक्त (संसारी) थे। बाद में ध्यान-साधना द्वारा मुक्त हुए हैं। इन्हीं की वे पूजा करते हैं और इन्हें ही ईश्वर मानते हैं परन्तु जगत्कर्ता आदि नहीं। चूँकि जैनदर्शन में आत्मा को शरीर-परिमाण कहा है। अत: संसारावस्था में कर्मजन्य छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है वह तद्रूप परिणत हो जाता है क्योंकि उसमें दीपक के प्रकाश की तरह संकोच-विकास शक्ति है। मुक्त होने पर कर्मबन्धन न होने से कोई शरीर नहीं रहता है। अव्यवहित पूर्वभव का शरीर-परिमाण (कुछ न्यून) बना रहता है क्योंकि उसमें संकोच विकास के कारणकर्मों का अभाव रहता है। अत: मुक्तावस्था में आत्मा न तो संकुचित होकर अणुरूप होता है और न व्यापक। आत्मा में स्वाभाविक रूप से एरण्डबीज, अग्निशिखा आदि की तरह ऊर्ध्वगमन स्वभाव माना जाता है जिससे वह शरीर-त्याग के उपरान्त ऊपर लोकान्त तक गमन करता है। लोकान्त (सिद्धालय) के बाद गति में सहायक धर्मद्रव्य (गतिद्रव्य) का अभाव होने से आगे (अलोकाकाश में) गमन नहीं होता है। अनन्त शक्ति होने पर भी मुक्त जीव लोकान्त के बाहर नहीं जाते क्योंकि वे सब प्रकार की कामनाओं से रहित (पूर्ण-काम) हैं। अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख की जो वहाँ सत्ता मानी गई है वह अतीन्द्रिय अपरोक्ष ज्ञान (केवलज्ञान) तथा अतीन्द्रिय सुख (आत्मस्थ ज्ञान-सुख) है। इन्द्रिय, मन, शरीर आदि का अभाव होने से वहाँ तज्जन्य सुखादि का अभाव है। शरीर का अभाव होने से पूर्णत: अरूपी और सूक्ष्म अवस्था है। इसीलिए अनेक मुक्त (सिद्ध) जीव एक ही स्थान पर बिना व्यवधान के ठहर जाते हैं। वहाँ पर सभी मुक्त या तो पद्मासन में हैं या खङ्गासन में, क्योंकि मुक्त जीव इन्हीं दो अवस्थाओं में ध्यान करते हुए मुक्त होते हैं। मुक्तावस्था में सभी एकसमान ज्ञान, सुखादि से युक्त होते हैं। उनमें कोई भेद नहीं होता है। यदि वहाँ कोई भेद (क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग आदि के भेद से बारह प्रकार का) है तो वह उपचार से पूर्व जन्म (भूतकाल) की अपेक्षा से है।११ अन्य दर्शनों के साथ तुलना जैनदर्शन में जीवन्मुक्त को भी स्वीकार किया गया है। यह सशरीरी अवस्था है और आयु की समाप्ति पर नियम से उसी भव में विदेहमुक्त होता है। इसके सभी घातिया कर्म (आत्मा के स्वाभाविक या अनुजीवी गुणों के प्रत्यक्ष घातक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म) नष्ट हो जाने से वह 'अर्हत्' (केवलज्ञानी) कहलाता है। इस तरह जैनधर्म में बौद्धों की तरह अभावरूप निर्वाण (मोक्ष) को स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि भावरूप पदार्थ का कभी अभाव नहीं होता है। न्याय-वैशेषिकों की तरह