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________________ २ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ इतना गाढ़ा है कि उसे दूर करने के लिए निरन्तर सद्दृष्टि, सद्-ज्ञानाभ्यास तथा सदाचरण की नितान्त आवश्यकता है। इन्द्रिय-संयम, आत्मध्यान, यम-नियम, समाधि, समता, तप आदि के द्वारा इसी बात को कहा गया है। अत: जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग (श्रेयोमार्ग) बतलाया गया है। बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधनों को एतदर्थ आवश्यक बतलाया गया है। वेदान्त, सांख्य, योग और न्याय-वैशेषिक दर्शनों में भी प्रकारान्तर (नाम-भेद ) से यही बात कही गई है । " गीता का भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही नामान्तर से कहता है । इतना विशेष है कि जैनदर्शन में इन तीनों को पृथक्-पृथक् मुक्ति का मार्ग न मानकर तीनों की सम्मिलित अनिवार्यता मानी है।' जहाँ इन्हें पृथक्-पृथक् मुक्ति का मार्ग बतलाया है वहाँ उसके महत्त्व को प्रदर्शित करना है परन्तु पूर्णता हेतु अन्य दो साधन भी अनिवार्य हैं क्योंकि सद्दृष्टि और सद्- ज्ञान के बिना कर्मयोग (सम्यक्चारित्र) का फल नहीं है, सदाचार और सद्-ज्ञान के बिना भक्तिमार्ग (सम्यग्दर्शन) सम्भव नहीं है तथा सद्-दृष्टि और सदाचार के बिना ज्ञानमार्ग (सम्यग्ज्ञान) भी फलदायी नहीं है। मुक्तावस्था 'मोक्ष' या 'मुक्ति' शब्द का सीधा अर्थ है - कर्मबन्धन - जन्य परतन्त्रता को हटाकर स्वतन्त्र हो जाना। जैन दर्शन में इसे सिद्ध अवस्था भी कहा गया है। सिद्ध का अर्थ है 'शुद्धता की प्राप्ति' । जैनदर्शन की मान्यता है कि कर्मबन्ध के रागादि कारणों का उच्छेद होने पर मोक्ष होता है।" जो आत्मा अनादिकाल से कलुषताओं से घिरा हुआ था वह मुक्त होने पर निर्मल, चैतन्यमय तथा ज्ञानमय हो जाता है। आत्मा की कर्मनिमित्तक वैभाविकी शक्ति के कारण जो संसारावस्था में विभावरूप (मिथ्यादर्शन, अज्ञान तथा असदाचाररूप) परिणमन हो रहा था, मुक्तावस्था में वह विभाव- परिणमन (राग-द्वेषादि रूप निमित्त के हट जाने पर) शुद्ध स्वाभाविक परिणमन (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) में बदल जाता है। अर्थात् मोक्षावस्था में आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप में स्थित हो जाता है।' इसीलिए उसे 'आत्म-वसति' कहा है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर आत्मा अनन्त चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य इन चार गुणों) को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था - प्राप्ति के बाद पुनर्जन्म नहीं होता है। आत्मा को व्यापक न मानने से उसके निवास स्थान को भी माना गया है। 'तीर्थङ्कर' होकर मुक्त होना एक विशेष अवस्था है परन्तु बाद में कोई भेद नहीं रहता है।
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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