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________________ ४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११ आत्मा के ज्ञान और सुख विशेष गुणों (बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार- ये नौ न्याय दर्शन में आत्मा के विशेष गुण माने गए हैं जिनका मुक्तावस्था में अभाव हो जाता है। जैन ज्ञान और सुख को छोड़कर शेष का अभाव मानते हैं।) का अभाव भी स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि यदि ऐसा माना जाएगा तो आत्मा जड़ हो जाएगा और कोई भी व्यक्ति जड़ (अचेतन) होना नहीं चाहता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वहाँ दु:ख के साथ इन्द्रिय-जन्य ज्ञान, सुखादि का भी अभाव हो जाता है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा और मन का संयोग होने पर ज्ञानादि आत्मा के विशेष गुण उत्पन्न होते हैं और मोक्ष में मन का संयोग न होने से ज्ञानादि गुण भी नहीं रहते हैं । १२ सांख्य-योग दर्शन की भी करीब-करीब यही स्थिति है क्योंकि चेतन पुरुष तत्त्व साक्षी मात्र है और बुद्धि (महत्) प्रकृति का विकार (जड़) है। अतः यहाँ भी मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं है क्योंकि वह प्रकृति के संयोग से होता है और मुक्तावस्था में आत्मा के साथ प्रकृति का संयोग नहीं माना गया है । वेदान्त दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में सुख और ज्ञान की सत्ता तो है परन्तु वहाँ एक ही आत्म तत्त्व है। १३ मुक्तात्माओं में तिरोहित आठ गुणों का आविर्भाव जैनदर्शन में सिद्धालय में पुद्गल (जड़ तत्त्व) के परमाणुओं के साथ आत्मा का संयोग तो है परन्तु आत्मा में रागादि का अभाव होने से वे परमाणु कर्मरूप परिणत नहीं होते हैं। अतः पुनर्जन्म नहीं होता है । जैनदर्शन में कर्म मूलतः आठ प्रकार के माने गए हैं जो आत्मा के स्वाभाविक आठ गुणों को ढँक देते हैं। इन कर्मों के हटने पर सभी सिद्धों (विदेह मुक्तों) में निम्न आठ गुण प्रकट हो जाते हैं । १४ १. २. ३. अनन्तदर्शन (तीनों लोकों के द्रव्यों का अवलोकन)- दर्शनावरणीय कर्मक्षय से प्रकट गुण । अनन्तवीर्य (अतुल सामर्थ्य या शक्ति) - अन्तराय कर्मक्षय से प्रकट गुण । सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व या अशरीरत्व) - नामकर्म के क्षय से प्रकट गुण । ६. अवगाहनत्व (जन्म-मरण का अभाव ) - आयुकर्म के क्षय से प्रकट गुण | ४. क्षायिक सम्यक्त्व (निर्मल श्रद्धान) - मोहनीय कर्म के क्षय से प्रकट गुण । अनन्तज्ञान (तीनों लोकों का त्रैकालिक पूर्ण ज्ञान) - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से प्रकट गुण। ५.
SR No.525078
Book TitleSramana 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size14 MB
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