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________________ सम्पादकीय :xi ६. अभव्य : समकालीन जैन विज्ञान में कुन्दकुन्द की अन्तर्दृष्टि सुश्री ब्रायन डोनाल्डसन ने अपने इस लेख में अभव्य के सिद्धान्त को जैन दर्शन का एक वैज्ञानिक सिद्धान्त बताते हुए कुन्दकुन्द के निश्चय और व्यवहार की अन्तर्दृष्टि को समकालीन जैन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है। यहां लेखक भ्रान्त और द्वन्द्वात्मक अन्तर्दृष्टि का शीर्षक में प्रयोग किया है जो उचित नहीं है। कुन्दकुन्द के अनुसार व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये ज्ञाता आत्मा के गुण हैं किन्तु निश्चय नय से वह अमूर्त - एक-शुद्ध-चेता मात्र है; उसमें कोई भेद नहीं है। व्यवहार से कुन्दकुन्द का तात्पर्य है जो भेदयुक्त, विशेष, अशुद्ध, आकस्मिक, असत्य और स्थूल आदि है। जैन दर्शन में अभव्य उस जीव को कहा गया है जिसमें मोक्ष - प्राप्ति की योग्यता नहीं है। भव्यजीवों की तुलना जैसा कि पद्मनाभ जैनी ने उल्लेख किया है, सड़े हुए बीज से की गयी है जिसमें अंकुरण या नये वृक्ष के रूप में उत्पन्न होने का सर्वथा अभाव है। किन्तु कुन्दकुन्द के अनुसार अभव्य एक समर्पित जैन भी हो सकता है जो जिनप्ररूपित समिति, गुप्ति, व्रत और तप का पालन भी कर सकता है। अभव्य जीव धर्म का पालन करता है किन्तु धर्म उसके कर्मों का पूर्ण प्रहाण नहीं कर पाता जिससे उसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो पाता - जैसे सभी निमित्तों के होने पर अंकुरोत्पादन में असमर्थ बीज या पुत्रोत्पन्न करने में असमर्थ स्त्री । कुन्दकुन्द के अनुसार अभव्य जीव ज्ञान की निम्न अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। ७. जैन साहित्य में चरितकथा श्री आल्ट्रिक ट्रिम क्रैग ने अपने इस लेख में प्रारम्भिक जैन साहित्य में चरित कथाओं का सविस्तार वर्णन किया है। श्री क्रैग के अनुसार यदि हम प्रारम्भिक जैन साहित्य का अवलोकन करें तो पता चलता है कि चरित कथायें और प्रभावक कथायें केवक धार्मिक महापुरुषों तक ही सीमित थीं । ११ वीं शताब्दी में एक नया मोड़ आया और साहित्यकार प्रबन्धों की रचना करने लगे। यह बदलाव जैन और बौद्ध साहित्य में एक साथ आया । प्रारम्भिक जैन सहित्य में महावीर तथा कुछ अन्य तीर्थंकरों के चरित उपलब्ध होते हैं। आगमों का उल्लेख देखें तो आचारांग जो श्वेताम्बर आगम साहित्य का सर्वाधिक प्राचीन अंग आगम (ई.पू. ३सरी - २सरी शती) है के प्रथम श्रुतस्कंध में महावीर के जीवन के उल्लेख दिये गये हैं जो बाद के चरितकाव्यों एवं कथासाहित्य के लिये आधार का कार्य करते हैं। व्यवस्थित रूप में महावीर चरित सबसे पहले कल्पसूत्र में मिलता है जिसमें महावीर के साथ पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और ऋषभ का चरित वर्णन किया गया है तथा अन्य तीर्थंकरों का केवल नामोल्लेख किया गया है। चौथी शताब्दी में दिगम्बर आचार्य यतिवृषभ ने ‘तिलोयपण्णत्ति' की रचना की जिसमें ६३ शलाकापुरुषों का उल्लेख प्राप्त होता है।
SR No.525075
Book TitleSramana 2011 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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