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________________ x : श्रमण, वर्ष ६२, अंक १ / जनवरी-मार्च-२०११ ४. जैन दर्शन में मुक्त जीवों का वैशिष्टय श्री सीन बट्लर ने अपने लेख में जैन दर्शन में मुक्त जीवों की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। जैन दर्शन में जीव को द्रव्य संज्ञा से अभिहित किया गया है जो अपनी सत्ता के लिये किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने जीव को ज्ञान कहा है तथा अहिंसा को जीव की प्रकृति कहा है। द्रव्यसंग्रहकार ने जीव की परिभाषा देते हुए उसे सम्यग्दर्शन कहा है। इस प्रकार जीव के अनेक लक्षण बताये गये हैं। फिर भी दिये गये सभी लक्षण जीव के सुख, ज्ञान, चेतना और वीर्य गुण को केन्द्र में रखकर किये गये हैं। संसारी (बद्ध )और मुक्त द्विविध वर्गीकरण वाले जीवों में से मुक्त जीव का वर्णन करते हुए पश्चिमी विचारक लाइनिज मानते हैं कि मुक्त जीव का लक्षण कुछ विशेष होना चाहिये अन्यथा वह बद्ध जीव के साथ अपने को अलग कैसे कर पायेगा। जैन साहित्य के अनुसार मुक्त जीव अन्य विशेषताओं के साथ अपने अन्तिम शरीर का (१/३ कम) आकार कायम रखता है जो एक विशेषता है। लेखक ने इस महत्त्वपूर्ण विषय पर एक परियोजना ली है। प्रस्तुत लेख में लेखक ने कुछ प्रश्नों को पाठकों की तरफ उछाला है ताकि उनका समुचित समाधान प्राप्त होने पर वह उन्हें अपनी परियोजना में स्थान दे सके। ५. समाधिमरण : जीवन आसक्ति के त्याग का एक निरपेक्ष आदर्श डॉ० सीन हिलमैन ने इस लेख में जैन धर्मदर्शन के प्रसिद्ध सिद्धान्त समाधिमरण को इच्छामृत्यु के रूप में लिया है जो युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि समाधिमरण अंगीकार करनेवाले जीव को न मरने की इच्छा होती है और न जीने की। समाधिमरण के लिय जैन धर्म में तीन शब्द व्यवहृत हुए हैं- सल्लेखना, संथारा तथा समाधिमरण । सल्लेखना का अर्थ है- शरीर और कषाय को आन्तरिक और बाह्यतप के माध्यम से निर्जरित करना अथवा नष्ट करना, संथारा का अर्थ है- संस्तारक बनाकर उसपर मृत्यु को अंगीकार करना तथा समाधिमरण का अर्थ है समत्वभाव में मृत्यु का वरण करने के लिये शारीरिक प्रयासों/क्रियाओं को बन्द करना। 'पइण्णय सुत्ताई' में मृत्यु को एक महोत्सव मानते हुए उसे सांसारिक जीवन का अन्तिम क्षण माना गया है जब समस्त शरीर के पुद्गलाणु विघटित हो जाते हैं। लेखक ने मृत्यु के- पंडितपंडित मरण, पंडित मरण, बाल-पंडित मरण, बालमरण एवं बाल-बाल मरण आदि प्रकारों का समुचित उल्लेख किया है। समाधिमरण की प्रक्रिया में अनशन, तप और कायक्लेश के महत्त्व को बताते हुए लेखक ने क्रमशः अन्नादि के त्याग रूप अनशन को समाधिमरण के लिये अधिक आवश्यक माना है और अपने मत के समर्थन में आचासंग आदि आगमों से कतिपय सन्दर्भो को उल्लिखित किया है। समाधिमरण को अंगीकार करने वालों की योग्यता बताते हुए लेखक ने कैथोलिक हेल्थ एथिक्स गाइड की कुछ धाराओं का उल्लेख किया है तथा यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि समाधिमरण और आत्महत्या में पर्याप्त अन्तर है।
SR No.525075
Book TitleSramana 2011 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2011
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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