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तत्त्वार्थसूत्र के कुछ बिन्दुओं पर विचार : २९ एकान्तनित्यवादी के दर्शन में आने वाले दोषों को दूर कर जैन दर्शन को परिणामी-नित्यवादी सद्धि किया अर्थात् जो उत्पाद और व्यय के होते हुए भी सद् रूप से मिटकर असत् नहीं हो, वह नित्य है। इस प्रकार सत् के निरूपण में उमास्वाति की विलक्षण योग्यता का पता चलता है। द्रव्य, गुण और पर्याय
जैन आगमों में द्रव्य, गुण और पर्याय के लक्षण उपलब्ध होते हैं। जैसे- 'गुणाण-आसओ दव्वं"५ अर्थात् जो गुणों का आश्रय हो वह द्रव्य है। गुण को परिभाषित करते हुए कहा- "एगदव्वस्सिया गुणा"६ अर्थात् जो एक द्रव्य के आश्रित हो वह गुण। पर्याय का लक्षण है- "लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे" अर्थात् जो द्रव्य और गुण के आश्रित हो वह पर्याय है। तत्त्वार्थ में प्राप्त द्रव्य, गुण एवं पर्याय के लक्षण को देखकर ऐसा लगता है कि उमास्वाति ने आगम में प्राप्त लक्षणों का अवलम्बन तो लिया ही है, किन्तु उसके साथ कहीं-कहीं वैशेषिक परिभाषाओं एवं सूत्र शैली का प्रयोग भी इनमें किया है। जैसे-तत्त्वार्थ की द्रव्य परिभाषा— "गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (५.३७) जो शाब्दिक रचना में वैशेषिक के "क्रियागुणवत्' (१.१.१५) से स्पष्ट प्रभावित है। वाचक ने गुण का लक्षण करते हुए कहा है- "द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" (५.४०) जो वैशेषिक के सूत्र "द्रव्याश्रय्यगुणवान्' (१.१.१६) से आंशिक प्रभावित है एवं वाचक ने पर्याय को "भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः" (५.३७) ऐसा कहा है। इसमें अर्थ और व्यंजन दोनों को उभय दृष्टि से पर्याय का स्वरूप बतलाया गया है। पुद्गल
जैन आगमों में पुद्गल का लक्षण ‘ग्रहण' किया है- "गहण-लक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए'८ जीव अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास रूप से पुदगलों का ग्रहण करता है अर्थात् पुद्गल में जीव के साथ सम्बद्ध होने की क्षमता ‘ग्रहण' गुण शब्द से आगमकार ने प्रतिपादित की है। इससे पुद्गल का स्वरूप बोध स्पष्ट नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त पुद्गल का लक्षण प्रतिपादित किया गया है। वाचक ने भी उत्तराध्ययन की परिभाषा का ही अनुसरण करते हुए पुद्गल को स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण कहा। साथ ही पुद्गल को शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, संस्थान, भेद, तम, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत इन दस अवस्थाओं वाला कहा है।