________________
श्रमण, वर्ष ६१, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर-२०१०
उत्तराध्ययन सूत्र की सुखबोधा वृत्ति : एक समीक्षा
डॉ. एच.सी. जैन*
[ आचार्य नेमिचन्द्रसूरिकृत सार्थक नाम वाली सुखबोधावृत्ति (संक्षिप्त टीका) का आधार आचार्य शान्तिसूरिकृत शिष्यहिता टीका है। यह टीका सांस्कृतिक दृष्टि से तथा कुछ विशिष्ट कथाओं की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने इस लेख के माध्यम से इस पर शोध करने की जिज्ञासा प्रकट की है। ]
उत्तराध्ययन सूत्र पर आचार्य शान्तिसूरि की शिष्यहिता टीका पर आधारित सुखबोधा टीका स्वतंत्र रूप से लिखी गयी है। इसे आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने ११वीं शताब्दी में लिखा है। उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों में वर्णित प्राकृत सूत्रों पर यह यद्यपि संस्कृत टीका है किन्तु इसका हिन्दी अनुवाद एवं शोध कार्य अभी तक नहीं हुआ है। मूल ग्रन्थ के अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। यह ग्रन्थ १२००० श्लोक प्रमाण है। उत्तराध्ययन सुखबोधावृत्ति के प्रारम्भ में तीर्थंकर, सिद्ध, साधु एवं श्रुत-देवता को नमस्कार किया गया है। इस ग्रन्थ के अन्त में गच्छ, गुरुभ्राता, वृत्तिरचना का स्थान, समय आदि का निर्देश भी लेखक के द्वारा किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि लेखक ने अपने गुरु-भ्राता मुनिचन्द्रसूरि की प्रेरणा से प्रस्तुत वृत्ति की रचना की है। इस टीका (वृत्ति) की रचना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए स्वयं नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) लिखते हैं
आत्मस्मृतये वक्ष्ये जडमति-संक्षेप-रुचि-हितार्थञ्च । एकैकार्थ-निबद्धां वृत्तिं सूत्रस्य सुखबोधाय ।। बह्वर्थाद् वृद्धकृताद् गंभीराद् विवरणात् समुद्धृत्य । अध्ययनामुत्तर
पूर्वाणामनेकपाठगताम् ।। बोद्धव्यानि यतोऽयं, प्रारम्भो गमनिकामात्रम् ।।
* सह-आचार्य, जैनोलोजी एवं प्राकृत विभाग, मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर, राजस्थान।