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८२ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
को उन्होंने औषधि माना जो निम्न हैं-घी, मक्खन, तैल, मधु एवं फड़ित (गुड़)। क्योंकि ये पाँच तत्त्व ऐसे हैं जिसे लोग औषधि भी मानते थे तथा आहार के रूप में भी ग्रहण करते थे, अतः इन पाँचों तत्त्वों को लेने का विधान बताते हुए उन्होंने कहा-'अतः भिक्षुओं अनुमति देता हूँ, इन पाँच औषधियों को पूर्वाह्न में लेकर इसका पूर्वाह्न में ही उपयोग करो। परन्तु समय के साथ जब भिक्षुओं की हालत बिगड़ने लगी तो इन औषधियों के सेवन को उन्होंने असमय भी प्रयोग करने की अनुमति दे दी।
वनस्पतियों के जड़ों का महत्त्व औषधियों के रूप में कितना होता है इस बात को ध्यान में रखकर उसके उपयोग का विधान बताया गया है। ऐसा विवरण आया है कि एक बार जब भिक्षुओं को किसी बिमारी के उपचार हेतु जड़ वाली औषधियों की आवश्यकता महसूस हुयी तो उन्होंने भगवान् बुद्ध से इसके बारे में कहा तो भगवान् बुद्ध ने कहा कि 'भिक्षुओं अनुमति देता हूँ कि मूल (जड़) वाली औषधियों की जैसे हल्दी, अदरक, वच, वचत्थ, अतीस, चिरायता, रवस, नागरमोथा या ऐसी ही अन्य मूल औषधियाँ जो कि न खाद्य हैं, न नित्य खाने के काम में आती हैं, न नित्य के भोजन के उपयोग में ही लायी जा सकती हैं उन्हें लेकर जीवन पर्यन्त साथ रखो ताकि वे रोग होने पर काम आ सकें। ऐसे जड़ों को रोग होने पर ही खाना चाहिए, स्वस्थ अवस्था में नहीं अन्यथा खाने वाले को दुष्कृत (दृक्कट) दोष लगेगा। उसके साथ ही साथ उन्होंने काथ (छाल से बनी) औषधियों के सेवन की आज्ञा भी दी है- जैसे नीम, कुटज, पटोल पत्र, नक्तमाल आदि। वर्तमान समय में भी नीम के औषधात्मक गुण को वैज्ञानिकों ने भली-भाँति माना है।
भगवान् बुद्ध ने विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों के पत्ते जिसमें औषधि के गुण विद्यमान होते हैं- जैसे नीम का पत्ता, पटोल का पत्ता, तुलसी का पत्ता, कपास का पत्ता आदि का प्रयोग करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के फलों का प्रयोग औषधि के रूप में करने की आज्ञा दी है, जिसमें पीपल, मरीच, हरे, बहेड़ा, आमला या गोष्ठ फल आदि प्रमुख औषधि युक्त फल हैं।
उस समय गोंद वाली औषधियों का प्रयोग भी व्यापक रूप से होता था तभी भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं को जतु (गोंद) वाली औषधि जैसे हींग, हींग का सत्तू, हींग की गाँठ तथा क्षार (लवण) युक्त औषधि वाली वस्तु जैसे समुद्री नमक, काला नमक, सैन्धव नमक, खान से निकला बिड़ नमक आदि के सेवन की अनुमति दी।