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श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४-१ अक्टू.-दिस. ०९-जन.-मार्च १०
महावग्ग में औषधि एवं शल्य चिकित्सा
डॉ. दिवाकर लाल श्रीवास्तव
भारत में औषधि एवं शल्य चिकित्सा का ज्ञान एवं उसका प्रयोग हमें प्राचीन काल से ही होता हुआ दिखाई देता है। वेद जो हमारी संस्कृति के प्राचीनतम दस्तावेज हैं, में अनेक ऐसी वनस्पतियों के नाम मिलते हैं जिनका उपयोग विभिन्न प्रकार की औषधियों को बनाने में किया जाता था। अथर्ववेद में वृक्षों को देव के रूप में मानते हुए तथा औषधात्मक गुण से सम्पन्न बतलाते हुए उसे विषदूषणर्णी तथा पुरुषजीवनी कहा गया है -उन्मुश्चन्तर्विवरुणा उग्रा या विषदूषणी। "विरुधो वैश्वदेवीः रुग्राः पुरुषजीवनी। जल को दिव्य औषधि कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण तथा कौषीतकि ब्राह्मण में वृक्षों तथा वनस्पतियों में औषधात्मक गुण होने के कारण तथा मानव जाति को नया जीवन देने के कारण उसे प्राण (जीवन) कहा गया है-'प्राणो वै वनस्पतिः। इसी प्रकार अथर्ववेद में वनस्पति को श्रेष्ठ मानते हुए विभिन्न रोगों पर विजय प्राप्त करने की बात करते हुए कहा गया है -
'उत्तमो अस्योषधीनां तव वृक्षा उपस्तयः। उपस्तिरस्तु सोइस्मांक यो अस्मां अभिदासति।।५.
अर्थात् हे वनस्पते! तू औषधियों में श्रेष्ठ है, अन्य वृक्ष तेरे लिए अनुगत हैं। जो रोग हमपर आधिपत्य जमाना चाहते हैं वे हमारे अधीन हो जायें। __महावग्ग में अनेक ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं जिससे पता चलता है कि
औषधि तथा शल्य चिकित्सा की जानकारी छठी शताब्दी ई.पू. तक पर्याप्त रूप में हो चुकी थी।
एक बार भगवान् बुद्ध जब अनाथ पिण्डक द्वारा निर्मित जेतवनाराम विहार में निवास कर रहे थे तो उसी समय भिक्षुओं में शीत ज्वर (मलेरिया) फैल गया जिसके परिणाम स्वरूप भिक्षु अत्यन्त कमजोर तथा दुर्बल दिखने लगे। तब भगवान् बुद्ध इस रोग का उपचार ढूँढने लगे। उन्होंने ऐसी औषधि को देने की बात सोची जो इनके लिए औषधि का भी कार्य करे तथा साथ ही साथ आहार के रूप में भी शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक हो। ऐसे पाँच तत्त्वों * रीडर, इतिहास विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी।