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७० : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
परिवार में बालक, स्त्री, माता-पिता, छोटे भाई-बहन और विधवा स्त्रियों का समावेश था। घर का कार्य स्त्रियाँ करती थीं। पिता ही परिवार का मुखिया होता था। सारे परिवार का एक जगह निवास, भोजन आदि की व्यवस्था थी। परिवार में त्याग की भावना उत्कृष्ट थी। हरेक सदस्य एक दूसरे के लिए अपना सबकुछ छोड़ने के लिए तैयार रहता था। ज्ञाताधर्मकथा का प्रसंग है कि राजगृह का एक सार्थवाह जब जंगल में अपने पुत्रों की रक्षा के लिए अपना मांस और रक्त देने के लिए तैयार हो गया, तो उसके ज्येष्ठ पुत्र ने निवेदन किया-पिता जी आप हमारे ज्येष्ठ हैं, संरक्षक हैं, इसलिए यह कैसे हो सकता है कि आपका बलिदान कर हम लोग अपना भरण-पोषण करें। अतएव आपलोग मुझे मारकर अपनी भूख-प्यास शान्त कर सकते हैं। अन्य पुत्रों ने भी अपने पिता से यही निवेदन किया।
समाज में अनेक संस्कारों का उल्लेख मिलता है। स्त्रियाँ श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति के लिए देवी-देवताओं, साधु-सन्तों की पूजा करती थीं। सुलसा, श्रीभद्रा आदि स्त्रियों ने अनेक देवों की पूजा कर श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति की थी।
गर्भकाल में दोहद का महत्त्व था। गर्भकालीन विशिष्ट इच्छा को दोहद कहते हैं, जिसे पूर्ण करने पर विशिष्ट योग्यता सम्पन्न सन्तान की उत्पत्ति होती है। गर्भकाल के दो, तीन महीने के अनन्तर विचित्र-विचित्र प्रकार के दोहद उत्पन्न होते थे। ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार रानी धारिणी को आकालिक मेघ दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई। समाज में पुत्र जन्म पर विशेष प्रकार के उत्सव मनाए जाते थे। राजाओं के घर पुत्रजन्म होने पर कैदियों की मुक्ति, दण्डमाफी, भोजनदान आदि प्रभूत मात्रा में होता था। बाजे-गाजे के साथ जन्मोत्सव संस्कार मनाया जाता था। पुत्रजन्म के प्रथम दिन ही जातकर्म संस्कार होता था। नाल काटकर जमीन में गाड़ दिया जाता था। आवश्यकचूर्णि के अनुसार अभ्यंगन, अग्निहोम, रक्षा पोटली बन्धन तथा कानों में 'टि टि' की आवाज करने का भी उल्लेख है।
पुत्र जन्म के दूसरे दिन जागरिका तथा तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य का उत्सवपूर्वक दर्शन कराया जाता था। ग्यारहवें दिन 'शूचिकर्म सम्पन्न होता था। बारहवें दिन अतिथियों को भोजन, वस्त्रादि से संस्कारित कर नामकरण संस्कार सम्पन्न होता था।
व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार जब बालक घुटनों पर चलने लगता तो परंगमण संस्कार, जब पैरों पर चलना सीख जाता तो चंक्रमण संस्कार, प्रथम दिन जब भोजन का आस्वादन करता तो जेमावण संस्कार, पहले-दिन बोलता तो प्रजल्पन संस्कार, कान छेदने के दिन कर्णवेगाँ संस्कार मनाया जाता था। वर्षगांठ, चूड़ायन,