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श्रमणपरम्परा में समाज व्यवस्था : ६९
एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए।१६। 'अहिंसा सव्वभूयक्खेमकरा' सबकी रक्षिका है।
अहिंसा मूलक समाज में तब कर्माधारित जाति-व्यवस्था मान्य थी। बाह्यचिह्नों पर आधारित जाति की स्वीकृति नहीं थी। उत्तराध्ययन का ऋषि कहता है
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बंभणो न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण ण तावसो।।
अर्थात् कोई सिर्फ सिर मुड़ा लेने से श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने मात्र से ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और केवल कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता है। कर्म के अनुसार ही उनकी जाति होती है
समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो नाणेण य मुणी होई तवेणं होइ तावसो।। कम्मुणा बंभणो होई कम्मुणा होइ खत्तिओ वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा।।
ब्राह्मण का महत्त्व श्रमण-परम्परा में भी स्वीकृत है। वह सर्वपापविरति होता है। इस सन्दर्भ में स्वयं अर्हत् वचन प्रमाण हैं
एए पाउकरे बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं।।"
उत्तराध्ययन का ऋषि स्पष्ट उद्घोष करता है कि गुण, शील सम्पन्न ब्राह्मण ही संसार का कल्याण कर सकता है
एवं गुणसमाउत्ता जे भवंति दिउत्तमा।
ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य।।२० पारिवारिक जीवन
पारिवारिक जीवन अत्यन्त उन्नत था। माता-पिता, स्वामी, धर्माचार्य आदि को उत्कृष्ट सम्मान प्राप्त था। स्थानांग का प्रसंग है कि पुत्र अपने माता-पिता की शतपाक एवं सहस्रपाक तेल तथा सुगंधित उबटन से मालिश करते थे। सुगन्धित एवं शीतल जलों से स्नान कराते थे, सर्वालंकार विभूषित करते, अष्टादशव्यंजनों से सत्कार करते तथा यावज्जीवन उन्हें अपने स्कन्ध पर धारण करते थे तो भी माता-पिता के उपकार का बदला चुकाने में असमर्थ रहते थे।