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________________ ६८ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० नन्वात्मानं बहु विगणयन्न आत्मन्येवावलम्बे तत्कल्याणि! त्वमपिनितरां मा गमः कातरत्वम्। कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा नाचैर्गच्छति उपरि च दशा चक्रणेमिक्रमेण ।। मनु और शुक्र का भी यही अभिमत हैआत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः।' आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मैव ह्यात्मनः। पुरुषार्थ तभी सफल होता है जब श्रद्धा सहचरी हो। श्रामण्य-व्यवस्था में पुरुषार्थ के साथ श्रद्धा पर भी बल दिया जाता है। वही समाज सफल हो सकता है, जहाँ के लोग श्रद्धावान् हों। गीताकार का स्पष्ट उद्घोष है श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् यत्परः संयतेन्द्रियः।। निरुक्तकार महामानव यास्क का वचन है'श्रद्धा श्रद्धानात्। तस्या एषाभवति।१२ जो सत्य को धारण करे वह श्रद्धा है। वह अन्धी नहीं होती है बल्कि सर्वदर्शनसमर्थ समागे से विभूषित होती है। श्रमण परम्परा का स्पष्ट उद्घोष है___ जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणुपालिज्जा विजहित्ता विसोत्तिय, जिस श्रद्धा से कार्यारम्भ करते हैं उसी श्रद्धा के साथ उस कार्य को पूर्ण करना चाहिए। श्रमणाचार्य युग-पुरुष आचार्य महाप्रज्ञ की वाणी इसका प्रमाण है। अश्रुवीणा में वे कहते हैं सत्संपर्का दधति न पदं कर्कशा यत्र तर्काः सर्वंद्वौधं व्रजति विलयं नाम विश्वासभूमौ सर्वे स्वादाः प्रकृतिसुलभा दुर्लभाश्चानुभूताः श्रद्धा स्वादो न खलु रसितो हरितं तेन जन्म।।" श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा, सच्चरित्रता, स्वाध्यायादि श्रमण परम्परा के समाजगत मानवीय मूल्य हैं। वहाँ समाज की मूल भित्ति अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर आधारित है। 'अहिंसा परमो धर्मः' का यह महाभारतीय उद्घोष वहाँ प्रतिपल सुनाई पड़ता है। यह सर्वश्रेष्ठ धर्म है, सर्वश्रेष्ठ तप है। दशवकालिक ने अहिंसा को उत्कृष्ट धर्म कहा है-धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमोतवो।५ अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है, शाश्वत धर्म है, नित्यधर्म है। आचारांग के अनुसार
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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