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श्रमणपरम्परा में समाज व्यवस्था : ६७
आकर्षण से सबको आकर्षित करती है । वहाँ वही होता है जो अपने अन्दर होता है। अपने समान संसार को जानने की मानने और देखने की कला सहज ही हस्तगत हो जाती है- 'अप्पणो बहिया पास' अर्थात् अपने ही समान बाहर देखो । तुम जिसको मारना चाहते हो वह तुम ही तो हो और कोई नहीं । उपनिषद् की यह आर्षवाणी
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । । यस्तु सर्वाणिभूतानि आत्मैवाभूद विजानतः । तन्न को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। श्रमण परम्परा में भी पल्लवित और पुष्पित होती है । तुम्हारे ही समान सभी जीव हैं
तुमंस नाम सच्चेव जं हन्तव्वं ति मन्नसि ।
जे आततो पासति सव्वलोए ।। "
गीताकार की समदर्शी गुणलसित पण्डित परिभाषा भी यहाँ पूर्णतया सुरक्षित है
विद्याविनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनिचैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनाः । । '
समदर्शिता और आत्मभावना के साथ स्वात्मवाद की माधवी संगीत भी श्रमण परम्परा में गीतायित है । व्यक्ति ही अपने पुरुषार्थ के बल पर स्वयं सबकुछ बन सकता है। आधुनिक काल में असफल होते युवकों के लिए, टूटती मनोरथ वाली युवतियों के लिए यह महामन्त्र कितना संजीवन रसायन बन सकता है, कोई इस मन्त्र का साधक ही बता सकता है। आचारांग का ऋषि कहता हैपुरिसा तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि ।
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हे पुरुष ! तुम अपने मित्र स्वयं ही हो बाहर मित्र क्यों खोजते हो । सुखदुःख का साथी, भाग्य विधाता कोई नहीं होता बल्कि पुरुष स्वयं होता है। सुखदुःख तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन जीवित वही रहता है जो स्वयं अपना मित्र है-विरही यक्ष अपनी द्वितीय जीवन को इसी पुरुषार्थवाद का संदेश देता है। यह सामर्थ्यशालिनी कला की रम्य प्रतिभा महाकवि कालिदास के काव्य में भी प्रस्फुटित हो जाती है, जो जीवनौषधि तो है ही प्राणौषधि भी बन जाती है