________________
६० : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च - १०
वर्णित हैं। षष्ठ प्रकरण में महाव्रतों (यमों) के साथ संकल्प का निरूपण है और श्रमण धर्म के प्रकारों के रूप में नियम का वर्णन है। सप्तम् प्रकरण में भावना एवं फल निष्पत्ति का विवेचन है।
'मनोऽनुशासनम्' को आचार्य तुलसी कृत जैन योग का सूत्रग्रन्थ कहा जा सकता है। इसके विषय में तेरापंथ के दसवें आचार्य महाप्रज्ञ जी ने कहा है'इसमें योगशास्त्र की सर्वसाधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मताएँ नहीं हैं। किन्तु जो हैं, अनुभवयोग्य और बहुजनसाध्य हैं। इस मानसिक शिथिलता के युग में मन को प्रबल बनाने की साधन-सामग्री प्रस्तुत कर आचार्यश्री ने मानव-जाति को बहुत ही उपकृत किया है" ।' यह आकार में लघु और प्रकार में गुरु है।
मनोऽनुशासनम् का प्रयोजन
आचार्य तुलसी ने 'मनोऽनुशासनम्' की रचना के पीछे अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है - मानसिक सन्तुलन के अभाव में व्यक्ति का जीवन दूभर बन जाता है। सब संयोगों में भी एक विचित्र खालीपन की अनुभूति होती है। अनेक व्यक्ति पूछते हैं-शान्ति कैसे मिले? मन स्थिर कैसे हो? मैं उन्हें यथोचित समाधान देता हूँ। ये प्रश्न कुछेक व्यक्तियों के नहीं हैं। ये व्यापक प्रश्न हैं । इसलिए इनका समाधान भी व्यापक स्तर पर होना चाहिए । 'मनोऽनुशासनम्' के निर्माण का यही प्रयोजन है।'
जैसा कि कहा भी जाता है- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।'
अर्थात् मनुष्य का मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। वह अनुशासन से ही प्राप्त होता है। बल-प्रयोग से वे (इन्द्रियों और मन ) वशवर्ती नहीं किये जा सकते। हठ से उन्हें नियन्त्रित करने का यत्न करने पर भी वे कुण्ठित हो जाते हैं। उनकी शक्ति तभी खत्म हो सकती है, जब वे प्रशिक्षण के द्वारा अनुशासित किए जाएं ।'
'मनोऽनुशासनम्' की विशेषताएँ
१. आचार्य तुलसी ने इसे सर्वग्राह्य बनाने के लिये सीधे मन से प्रारम्भ किया। मन को प्राथमिकता देने के कारण ही सर्वप्रथम मन की परिभाषा दी, अनन्तर मन और इन्द्रियों का सम्बन्ध निरूपण करते हुए आत्मा के स्वरूप का विवेचन कर, मन के स्वामी आत्मा द्वारा मन के अनुशासन की प्रक्रिया को योग कहा। ऐसी स्थिति में मन को इन्द्रिय और आत्मा को मध्यस्थ मानकर इन्द्रियों के द्वारा मन से प्राप्त ज्ञान शुद्ध हो, इस हेतु मन के संसाधन स्वरूप इन्द्रियों के शोधन की बात प्रथम प्रकरण में कही है। इस प्रथम