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जैनसाधनापद्धति : मनोऽनुशासनम् : ५९
तेरापंथ के नवम् आचार्य तुलसी का महत्त्व सर्वातिशायी है। वे तत्त्ववेत्तामनीषी, चिन्तक, साधक शिक्षाशास्त्री, धर्माचार्य, बहुभाषाविज्ञ, समाजसुधारक, आशुकवि, प्रकाण्डपण्डित और दार्शनिक थे। इन्होंने जैनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्याय-कणिका, पंचसूत्रम्, शिक्षाषण्णवति तथा कर्तव्यषत्रिशिंका का ही प्रणयन नहीं किया अपितु योग एवं मन को अनुशासित करने के लिये आचार्य ने 'मनोऽनुशासन' की रचना की। मनोऽनुशासन की रचना में दर्शनशास्त्र में बहु प्रचलित सूत्र शैली का आश्रय ग्रहण किया गया है। सूत्र शैली की विशेषता यह है कि इसमें गूढ़ से गूढ भावों को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है। सूत्रकार विषय की संक्षिप्तता का इतना ध्यान रखते हैं कि किसी बात को कहने में यदि वे एक शब्द भी कम प्रयोग कर सकें तो यह उनके लिये उतना ही सुखकारक होता है, जितना पुत्रोत्सव होता है। आचार्य के सूत्र कण्ठस्थ करने के लिये उपयोगी होते हैं, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या कर, वे अपने विषय को कितना भी विस्तार दे सकते हैं। __आचार्य तुलसी ने साधक एवं सुधी विद्वानों के सहज स्मरण रखने के लिये १८१ सूत्रों में 'मनोऽनुशासन' का संस्कृत में प्रणयन किया, वहीं उनके पट्ट शिष्य मुनि नथमल ने इसकी विशद हिन्दी व्याख्या कर, इसकी उपादेयता में चार चाँद ही नहीं लगाये अपितु इसे सर्वबोधगम्य भी बना दिया।
'मनोऽनुशासनम्' के प्रणयन में आचार्य तुलसी महर्षि पतञ्जलि से प्रभावित हैं जिसे निम्न विवेचन से समझा जा सकता हैपतञ्जलि
आचार्य तुलसी० अथ योगानुशासनम्। अथ 'मनोऽनुशासन'। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं ।
मनः। 'मनोऽनुशासन' का परिचय
यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण में मन, इन्द्रिय और आत्म निरूपण के साथ योग के लक्षण, शोधन और निरोध की प्रक्रिया और उपायों का वर्णन है। द्वितीय प्रकरण में मन के प्रकार और निरोध के उपाय, तृतीय प्रकरण में ध्यान का लक्षण और उसके सहायक तत्त्व, स्थान (आसन), प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) की परिभाषा, प्रकार, स्वाध्याय, भावना, व्युत्सर्ग की प्रक्रिया का वर्णन है। चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यान, धारणा, समाधि, लेश्या आदि का विवेचन है। पंचम प्रकरण में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन के साथ होने वाली सिद्धियाँ