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५८ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १/ अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० विवेचन किया गया है-(१) प्राणायाम, (२) प्रत्याहार, (३) ध्यान, (४) धारणा, (५) तर्क, (६) समाधि। महर्षि पतञ्जलि ने इसमें यम, नियम और आसन नामक तत्त्वों को जोड़ा तथा तर्क को हटाकर योग को अष्टांग बना दिया।
जैनसाधना पद्धति के सूत्र आगमों में भी मिलते हैं जहाँ शुद्ध सात्विक जीवन का आधार त्रिरत्न को माना गया है। जैन दर्शन का भव्य प्रासाद सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन एवं सम्यक्चारित्र इन्हीं तीन आधारों पर अवस्थित है। फिर तप को चारित्र के एक अतिरिक्त अंग के रूप में सम्मिलित कर इसे चतुष्पद बना दिया गया। जैन साधना वीतरागता को प्रमुखता देती है। अतः वह सांसारिक आकर्षण को कषाय का स्वरूप मानते हुये साधक को इनसे बचने की सलाह देती है। यह व्यवहार और निश्चय के रूप में तो द्विविधा है ही परन्तु श्रमण धर्म श्रावक धर्म के रूप में भी द्विविधा है। जिसे सर्वविरति और देशविरति के रूप में व्याख्यायित किया गया है। मुनि नथमल (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) के शब्दों में-'साधना का क्रम प्राप्त मार्ग यह है कि हम पहले असत्प्रवृति से हटकर सत्प्रवृत्ति की भूमिका में आएं और फिर निवृत्ति की भूमिका को प्राप्त करें।
तप साधना के विकास क्रम में जैन, बौद्ध और शैव दर्शन छठी-सातवीं शताब्दी के मध्य योग के समीप आए। बौद्धों में वज्रयानशाखा तन्त्र-मंत्र साधना द्वारा लोक-परलोक विजय की कामना करने लगी, तो शैवों में पातञ्जल योग का सहारा लेकर हठयोग की प्रवृत्ति बनी। सिद्ध और नाथों की परम्परा के समकाल में ही जैन आचार्यों ने जैन योग की दृष्टि से विचार करना प्रारम्भ किया। तप के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, द्वादशव्रत और अनुप्रेक्षा को ध्यान में रखते हुए जैन साहित्य में यौगिक क्रियाओं का साहित्यिक और प्रात्यक्षिक अनुप्रयोग होने लगा।
जैन योग की परम्परा को व्यवस्थित रूप आचार्य हरिभद्र ने दिया। उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय आदि यौगिक ग्रन्थों की रचना कर योग को एक नया रूप दिया। पतञ्जलि के अष्टांगयोग की भाँति आठदृष्टियों की चर्चा की तथा मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में धर्म व्यापार को मानकर अध्यात्म भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय रूप योग के पाँच भेद किए। आचार्य देवनंदि पूज्यपाद ने इष्टोपदेश, समाधितन्त्र, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र, शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव, श्री नागसेनमुनि ने तत्त्वानुशासन, यशोविजय ने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, मंगलविजय ने योगप्रदीप, अमितगति ने योगसारप्राभृत, सोमदेवसूरि ने योगमार्ग, आचार्य भास्करनंदि ने ध्यानस्तव तथा योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाशयोगसारः की रचना कर जैन योग की परम्परा को समृद्ध किया।