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४४ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च- १०
इस प्रकार सुन्दरता को मात्र (विषयी) व्यक्तिनिष्ठ रुचि की वस्तु न मानकर उसे वस्तुओं के गुण के रूप में मानते हैं। हर्बर्ट सिडनी लैंगफेल्ड ने अपनी पुस्तक 'दि ऐसिथेटिक एटीट्यूड' में कहा है कि सौन्दर्य विषयीनिष्ठ न होकर, वस्तु में होते हैं और उनका मात्र अनुभव किया जाता है, न कि वे वस्तु पर आरोपित किये जाते हैं, जिन्हें दर्शक, श्रोता और पाठक सुन्दर वस्तुओं की उपस्थिति में धारण करता है'। क्या वे जंगली फूल जो मनुष्य के भी आगमन के शताब्दियों पूर्व घास के मैदान पर खिले थे, आँख के सामने आने के पूर्व और उसकी प्रशंसा करने के पूर्व भी सुन्दर नहीं थे? क्या इन्द्रधनुष तभी सुन्दर होने लगा, जब से मनुष्य ने उसे सबसे पहले देखा था?
ज्ञातव्य है कि प्राचीन भारतीय शास्त्रों में सौन्दर्य वही सार्थक माना गया है, जो परमार्थ का साधक हो । परन्तु यूरोपीय विचारक सौन्दर्य का दो रूप मानते हैं-सुख प्रदायक सौन्दर्य (Pleasure Value of a thing) और प्रभावक सौन्दर्य (Influence Value of a thing)। सौन्दर्य का प्रस्फुटन - चाहे किसी माध्यम से क्यों न हो, किन्तु दुनियाँ के अधिकांश विचारक बाह्य सुन्दरता की अपेक्षा आन्तरिक सुन्दरता को ही वास्तविक सौन्दर्य मानते हैं। उदाहरणार्थ -तुलसीदास ने 'मानस' की रचना स्वान्तः सुखाय की थी, किन्तु तुलसी का सुख मानव - मात्र का सुख था, इसी से वह 'सर्वजन सुखाय' बन गया । इसलिए यदि सहृदयी जन में सौन्दर्य हो, तो वे अनेक सुन्दर तथा शुभ विचारों और सम्प्रत्ययों का सृजन करेंगे, जो बुद्धिमत्ता के असीम प्रेम से ओत-प्रोत होगा । जैसे सूरदास और मिल्टन अपने अन्तःचक्षु के द्वारा आन्तरिक सौन्दर्य को पद्म में अभिव्यक्त करके अमर हो गये। दूसरे शब्दों में ऐसे सहृदयी जन सत्य में या सत्य के द्वारा सौन्दर्य का दर्शन करते हैं । अन्ततः आन्तरिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत सहृदयी व्यक्ति का रोमरोम सर्वहित की भावना से परिपूर्ण होता है, कथनी-करनी में किसी स्तर पर भेद नहीं होता। उनका हृदय प्रेम, अहिंसा, सत्य - अभय और दया से युक्त होता है। अर्थात् उसके क्रिया-कलाप में सर्वहित की सार्वभौमता होती है। प्रकृति की भाषा की तरह सहृदयीजन को अपने प्रदर्शन में किसी भाष्यकार की अपेक्षा नहीं रहती। सौन्दर्य स्वतः स्फूर्त ढंग से स्वयमेव यह बताता है कि उसका मर्म क्या है? उसके बाह्य रूप-रंग को देखते ही उसकी अन्तरात्मा का साक्षात्कार होने लग जाता है। वस्तुतः शारीरिक सौन्दर्य का कोई मतलब नहीं होता । जैसे- परमात्मा के अनुपम सौन्दर्य का कोई रूप-रंग नहीं होता है, वैसे ही आन्तरिक सुन्दरता, प्रेम, करुणा, दया का भी कोई आकार नहीं, लेकिन जिसके पास यह 'है' उसे