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जैन दर्शन में आकाश : ४१
dent on material objects and so is readily thought of as one. Conceptual time is more or less independent.
अर्थात् देश और काल स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष हैं।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि तर्क, अन्तःअनुभूति एवं विशिष्ट आत्मज्ञान के आलोक में निरूपित जैन दर्शन का आकाश सिद्धान्त वैज्ञानिकों के समक्ष एक सम्यक् प्रणाली उपस्थित करता है तथा न्यूटन की आकाश सम्बन्धी धारणाएँ जैन दर्शन विचारधारा के साथ अधिक सादृश्य रखती हैं। सन्दर्भ-सूची १. जैन दर्शन के नवतत्त्व, जैन साध्वी डॉ. धर्मशीला, पृ. ७९। २. एकार्थक कोश-आचार्य तुलसी, पृ. २८८-२८९। ३. भगवती टीका-१४३१। ४. द्रव्यसंग्रह-१९। ५. राजवार्तिक-५/१/२२॥ ६. अनुयोगद्वार, मलधारीय टीका-६७। ७. तत्त्वार्थसूत्र-५/१८, पंचास्तिकाय-गा. १०। ८. वही-५/४। ९. वही-५/६। १०. वही-५/१८ ११. राजवार्तिक-५/१.२१। १२. नयचक्र वृहवृत्ति-९८ १३. (क) पंचास्तिकाय-९१।
(ख) वृहद्र्व्य संग्रह-२०।
(ग) उत्तराध्ययन-३६.२। १४. जैन दर्शन एवं पाश्चात्य दर्शन-डॉ. आनन्द त्रिपाठी, पृ. ८८-८९। १५. जैन दर्शन और विज्ञान-जैन विश्वभारती इंस्टीट्यूट, लाडनूं, पृ. २४६
२४७। १६. जैन दर्शन एवं पाश्चात्य दर्शन, डॉ. आनन्द त्रिपाठी-पृ. ९० पर उद्धृत।