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________________ ४० : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ । अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० सिद्धान्त की स्थापना की थी। अपनी विश्वविख्यात पुस्तक प्रिंसिपिया (Principia) में आकाश और काल का विवेचन करते हुए न्यूटन ने लिखा है-'निरपेक्ष आकाश, अपने स्वभाव और बाह्य किसी वस्तु की अपेक्षा बिना सदा एक सा और स्थिर रहता है, और काल के सम्बन्ध में निरपेक्ष, वास्तविक और गणितिक काल स्वभावतः किसी बाह्य वस्तु की अपेक्षा बिना सदा एक रूप से अपने आप बहता है।' न्यूटन की इन व्याख्याओं से स्पष्ट हो जाता है कि न्यूटन ने वस्तुनिष्ठ रूप से आकाश और काल को स्वतन्त्र माना है। इनका अस्तित्व न तो ज्ञाता पर निर्भर है और न अन्य भौतिक पदार्थों पर, जिनको वे आश्रय देते हैं। 'सभी वस्तुएँ आकाश में स्थान की अपेक्षा से रही हुई हैं न्यूटन के इस कथन का तात्पर्य यही है कि आकाश एक अगतिशील (स्थिर) आधार के रूप में है तथा उसमें पृथ्वी और अन्य आकाशीय पिण्ड रहे हुए हैं यह (आकाश) असीम विस्तार वाला है। चाहे वह किसी द्रष्टा (अथवा ज्ञाता) के द्वारा देखा जाय (अथवा अनुभव किया जाय) या नहीं और चाहे वह कोई पदार्थ द्वारा अवगाहित हो अथवा नहीं, इनकी अपेक्षा बिना स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में है और सदा से अस्तित्व में था। जो कुछ भी विश्व में हो रहा है, वह आकाश में हो रहा है। प्रत्येक भौतिक पदार्थ आकाश में ही कहीं-न-कहीं रहा हुआ है और उसमें ही वह अपना स्थान परिवर्तन कर सकता है। न्यूटन के अनुसार आकाश की रचना में सातत्य है, अर्थात् आकाश 'एक और अखण्ड' तत्त्व है। सर्वत्र एकरूप है, अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थों द्वारा अवगाहित होने पर भी उनके गुणों में परिवर्तन नहीं आता है। न्यूटनीय भौतिक विज्ञान ने आकाश के साथ भौतिक ईथर का अविच्छिन्न सम्बन्ध जोड़कर गति की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया। यहाँ ईथर एक ऐसा भौतिक तत्त्व माना गया जो समग्र देश में व्याप्त है और जो प्रकाश-तरंगों के प्रसार में सहायक होती है। किन्तु प्रकाश तरंगों के प्रसार में सहायक ईथर की मान्यता को वैज्ञानिक अनुसन्धानों के आधार पर कालान्तर में माइकलसन और मौर्ले ने अस्वीकार कर दिया। निरपेक्ष देश-काल सम्बन्धी अवधारणा को न्यूटन के अतिरिक्त गैलेलियो ने भी स्वीकार किया। डेकार्ट, स्पिनोजा भी इसी मत को स्वीकार करते हैं। जी. डब्ल्यू.कनिंघम ने अपने पुस्तक Problems of Philosophy में इसी निरपेक्ष आकाश और काल को स्वीकार करते हुए लिखा है 'The space of conception is purę more or less indepen
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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