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जैन दर्शन में आकाश : ३९
अवकाश देने वाला है, उसे आकाश द्रव्य जानो। 'अवकाशदानाद्वा५ अर्थात् जो अन्य सर्व द्रव्यों को अवकाश दे, वह आकाश है। इस प्रकार वह द्रव्य, जिसमें अन्य सभी द्रव्य स्थान या आश्रय ग्रहण करें, आकाश कहलाता है। आकाश से संयुक्त होकर भी जहाँ पदार्थ उसके स्वरूपगत गुणों से अप्रभावित होते हुए अपने मूल रूप में अवस्थित और अभिव्यक्त रहते हैं, वह आकाश है।
_आकाश द्रव्य का स्वभाव जीव, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म को स्थान (अवकाश) देना है। यह द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है, एक अखण्ड द्रव्य है और निष्क्रिय है। अवगाहन देना उसका उपकार है। जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित करे, वह आकाश है । वृहद् नयचक्र के अनुसार २ जो चेतन रहित, अमूर्त, सर्व द्रव्यों को अवगाह देने वाला सर्वव्यापी है, वह आकाश द्रव्य है।
जैन दर्शन में आकाश द्रव्य रूपादि रहित, अमूर्त, निष्क्रिय तथा सर्वव्यापक द्रव्य है। लोकवर्ती समस्त पदार्थों को यह स्थान/अवगाह देता है तथा स्वयं भी उसमें अवगाहित होता है। यद्यपि जीव और पुद्गल भी एक-दूसरे को अवगाह देते हैं, किन्तु उन सबका आधार आकाश ही है।
जैन दर्शन में आकाश के दो प्रमुख भेद माने गये हैं-लोकाकाश तथा अलोकाकाश। धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव ये पाँच द्रव्य जिसमें हैं, वह लोकाकाश है। जिसमें ये पाँच द्रव्य नहीं हैं, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश के आगे अलोकाकाश है। लोक और अलोकव्यापी सम्पूर्ण आकाश अनन्त प्रदेशी है. क्योंकि अलोक का अन्त नहीं है। परन्तु लोकाकाश का अन्त है। इसलिए वह असंख्यात-प्रदेशी है। लोकाकाश एक, अखण्ड, सान्त और ससीम है। उसकी सीमा से परे अलोकाकाश एक और अखण्ड है तथा असीम-अनन्त तक फैला हुआ है। ससीम लोक चारों ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है।
वैज्ञानिकों में न्यूटन ने जैन दर्शन के समान ही आकाश को वास्तविक स्वरूप में स्वतन्त्र 'वस्तु सापेक्ष स्वीकार किया है तथा उसे अगतिशील एवं अखण्ड शून्यता से युक्त माना है। न्यूटन का मत"
आइन्स्टीन के सापेक्षिता के सिद्धान्त (Theory of Relativity) से पूर्व वैज्ञानिक जगत् में 'आकाश और काल सम्बन्ध एक सर्वमान्य सिद्धान्त था, जो कि सर आइजक न्यूटन (१६४२ ई. से १७२७ ई.) द्वारा सर्वप्रथम दिया गया। दार्शनिक ग्रेसेण्डी के आकाश सम्बन्धी विचारों से प्रभावित होकर न्यूटन ने इस