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३८ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू. - दिसम्बर ०९ - जन. - मार्च- १०
जिसमें सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में
प्रकाशित होते हैं।
१.
आकाशः
२. गगन
३. नभ
४.
सम
विषम
५.
६. खह
७.
विध
८.
९.
१०.
वीचि
विवर
अम्बर
११. अंबरस
१२.
छिद्र
१३. झुषिर १४. मार्ग
१५. विमुख १६. अर्द
१७. आधार
१८.
व्योम
१९. भाजन
२०. अन्तरिक्ष
२१. श्याम
२२.
२३. अगम
२४. स्फटिक
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अबाधित गमन का कारण ।
शून्य होने से जो दीप्त नहीं होता ।
जो एकाकार है, विषम नहीं है।
जिसका पार पाना दुष्कर है।
भूमि को खोदने से अस्तित्व में आने वाला।
जिसमें क्रियाएँ की जाती हैं।
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विविध स्वभाव वाला।
आवरण न होने के कारण विवर ।
माता की भाँति जनन सामर्थ्य से युक्त पानी का दान करने वाला।
जल को धारण करने वाला ।
छेदन से उत्पन्न होने वाला ।
रिक्तता को प्रस्तुत करने वाला ।
गमन करने का मार्ग ।
अवकाशान्तर दो अवकाशों के बीच होने वाला ।
जो स्थिर है, गमन क्रिया से रहित है।
स्फटिक की भाँति स्वच्छ ।
प्रारम्भिक बिन्दु के अभाव के कारण विमुख ।
जिससे गति की जाती है।
आधार देने वाला।
जिसमें विशेष रूप से गमन किया जाता है।
समस्त विश्व का आश्रयभूत ।
जिसके बीच (नक्षत्र आदि) देखे जाते हैं। नीला होने के कारण श्याम ।
२५. अनन्त
अन्तरहित।
जैन दर्शन में आकाश की परिभाषा करते हुए बतलाया गया है'अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं" अर्थात् जो जीवादि द्रव्यों को