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श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४-१ अक्टू.-दिस. ०९-जन.-मार्च १०
जैन दर्शन में आकाश
डॉ. रामजी राय
आकाश सर्वमान्य, सर्वसुलभ, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वास्तविक तथ्य है, जिस पर दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के विचार प्रस्तुत होते आ रहे हैं। विचार कभी पूर्ण अथवा निर्विवादित नहीं होते, अतः पुनर्विचार चलते रहते हैं। तर्क और विज्ञान सम्मत विचारों की खोज जारी रहती है। आकाश के सम्बन्ध में भी यही बात है। आकाश पर दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से विचार व्यक्त किये हैं और कर रहे हैं। खोज जारी है और इसकी कोई समय-सीमा नहीं है। दार्शनिक अपने सहज अन्तःदर्शन के सहारे वैज्ञानिक बौद्धिक ज्ञान के आधार पर खोज जारी रखे हुए हैं।
प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने आकाश द्रव्य को स्वीकार किया है, किन्तु आकाश द्रव्य का जितना विशद् वर्णन जैन दर्शन में उपलब्ध है, उतना अन्यत्र नहीं। आकाश द्रव्य के सम्बन्ध में पाश्चात्य दार्शनिकों के दो मत दिखायी देते हैं-वास्तविक और अवास्तविक।' डेकार्ट्स, लाइबनीज, काण्ट आदि दार्शनिकों ने आकाश को स्वतन्त्र वस्तुसापेक्ष वास्तविक नहीं माना। परन्तु प्लेटो, अरस्तू, ग्रेसेण्डी आदि आकाश को स्वतन्त्र वस्तुसापेक्ष वास्तविक मानते हैं। जैन दर्शन आकाश को अस्तिकाय मानता है, जो वास्तविक है। वास्तविकता की दृष्टि से जैन दर्शन का मत दूसरे पक्ष से मेल खाता है। ___ आकाश के सम्बन्ध में दो भेद और भी हैं-(१) शून्य और (२) अशून्य। काण्ट, ग्रेसेण्डी आदि तत्त्वज्ञ शून्य आकाश का अस्तित्व भी वास्तविक मानते हैं, जबकि डेकार्ट्स, लाइबनीज, प्लेटो आदि का मत है कि पदार्थ के अभाव में आकाश का कुछ भी अस्तित्व नहीं है। सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दर्शन का सादृश्य प्रथम पक्ष के साथ दिखायी पड़ता है। अलोकाकाश पूर्णतया रिक्त है, फिर भी वास्तविक है। लोकाकाश में भी निश्चित रूप से शून्यता की विद्यमानता को स्वीकार किया गया है, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सम्पूर्ण लोकाकाश पदार्थों से व्याप्त है।
___ आकाश के पच्चीस पर्यायवाची नामों के उल्लेख जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जिनकी व्युत्पत्तिगत भिन्नता भगवती टीका में निम्न प्रकार उल्लिखित है