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३४ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० वर्ष आदि उसके भेद हैं। ये समस्त भेद काल के कारण ही होते हैं। काल न होता तो ये भेद भी नहीं होते। जीव और पुद्गल में समय-समय पर जीर्णता उत्पन्न होती है, वह काल द्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकती। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप स्वभाव से युक्त जीव और 'पुद्गल का जो परिणमन दिखाई देता है, उससे काल द्रव्य सिद्ध होता है।
काल द्रव्य पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शों से रहित है। हानि-वृद्धिरूप है, अगुरुलघु गुणों से युक्त है, अमूर्त है और वर्तना लक्षण सहित है।
दिगम्बर परम्परानुसार काल निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। श्वेताम्बर परम्परानुसार काल चार प्रकार का है-प्रमाणकाल, यथायुर्निवृत्ति काल, मरणकाल और अद्धाकाल। काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं इसलिये उसे प्रमाणकाल कहा जाता है। जीवन और मृत्यु भी काल सापेक्ष हैं इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुर्निवृत्तिकाल और उसके अन्त को मरणकाल कहा जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। काल का प्रधान रूप अद्धाकाल ही है। शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं। अद्धाकाल व्यावहारिक है। वह मनुष्य लोक में ही होता है। इसीलिए मनुष्य लोक को समय क्षेत्र कहा जाता है। निश्चय काल जीव-अजीव का पर्याय है। वह लोक-अलोक व्यापी है उसके विभाग नहीं होते। समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के जितने विभाग हैं वे सब अद्धाकाल के हैं। इसका सर्वसूक्ष्म भाग समय कहलाता है जो अविभाज्य होता है। इसकी प्ररूपणा कमलपत्र-भेद और वस्त्र विदारण के द्वारा की जाती है। मन्दगति से एक पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना समय लगता है उसे एक 'समय' कहते हैं। इस दृष्टि से जैनधर्म की समय की अवधारणा आधुनिक विज्ञान के बहुत समीप है। १९६८ की एक परिभाषा के अनुसार सीजियम धातु नं. १३३ के परमाणुओं के ९१९२६३१७७६ कम्पन की निश्चित अवधि कुछ विशेष परिस्थितियों में एक सेकण्ड के बराबर होती है।
अन्ततः निष्कर्ष स्वरूप श्रमणी मंगलप्रज्ञा के शब्दों में हम कह सकते हैं कि काल के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेद हो सकते हैं किन्तु व्यावहारिक जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम्' जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः काल की स्वीकृति