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जैन दर्शन में काल की अवधारणा : ३५
आवश्यक है। कालवादी दर्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्त्व स्वीकार करते हैं। इतना न भी मानें तो भी विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्त्व तो काल को मानना ही होगा। सन्दर्भ-सूची १. ऋग्वेद, १०.१९०। २. अथर्ववेद, १८/५३,५४। ३. (अ) बृहदारण्यक, ४.४.१६।
(ब) मैत्रायण, ६.१५। ४. जैनदर्शन के नव तत्त्व-डॉ. धर्मशीला, पृ. ८१। ५. (अ) पातंजलयोगदर्शनम्, ३/५२।
(ब) जैन आगम में दर्शन, समणी मंगलप्रज्ञा, पृ. १३५ पर उद्धृत। ६. जैन दर्शन के नव तत्त्व, पृ. ८१। ७. (अ) Howking, Stephen-A Brief History of Time, p-143. (ब) जैन __ आगम में दर्शन, पृ. १४० पर उद्धृत। ८. जैन दर्शन के नव तत्त्व, डॉ. धर्मशीला, पृ. ८१-८२।। ९. समयाति वा, अवलियाति वा, जीवाति वा, अजीवाति वा-ठाणं २/३८७। १०. अंगसुत्ताणि, २ (भगवई) १३/६१-७१। ११. वही, २/१२४। १२. वही, ५/२४८। १३. लोगागासपदे से एक्केक्क जेठिया हु ऐक्केक्का। रयणाणं रासी इव, ते कालाणु
असंखदव्वाणि।। द्रव्य संग्रह-२२ १४. उत्तरज्झयणाणि, २८/१० का टिप्पण, पृ. १४८। १५. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२२। १६. जैन दर्शन में द्रव्य, कपूर चन्द जैन, पृ. ३०.३१। १७. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.२२.१०। १८. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.२२.४। १९. जैन धर्म दर्शन, डॉ. मोहन लाल मेहता, पृ. २१९-२०। २०. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय गाथा, २३, पृ. ४८।
सब्भावसभावाणं जीवणां तह यु पोगलाणं च।
परियट्टणसंभूदो कालो नियमेण पण्णत्तो।।२३।। २१. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय गाथा, २४ पृ. ५०।