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________________ ३२ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ । अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० by different observers would not necessarily agree. Thus time become a more personal concept relative to the observer who measured it." नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्व-व्यापी स्वतन्त्र और अखण्ड द्रव्य मानते हैं। कुछ पाश्चात्य विद्वान् भी काल के सम्बन्ध में दोनों सिद्धान्तों को मानते हैं। जैन परम्परा में काल के सन्दर्भ में दो अवधारणाएँ प्राप्त हैं-प्रथम अवधारणा के अनुसार काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, वह जीव और अजीव की पर्याय मात्र है। इस मान्यता के अनुसार जीव एवं अजीव द्रव्य के परिणमन को ही उपचार से काल माना जाता है। वस्तुतः जीव और अजीव ही काल द्रव्य हैं। काल की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। दूसरी अवधारणा के अनुसार काल स्वतन्त्र द्रव्य है। अद्धासमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है । यद्यपि काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वालों ने भी उसको अस्तिकाय नहीं माना है। सर्वत्र धर्म-अधर्म आदि पाँच अस्तिकायों का ही उल्लेख प्राप्त होता है। श्वेताम्बर परम्परा में काल की दोनों प्रकार की अवधारणाओं का उल्लेख है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाली आवधारणा का ही उल्लेख है। यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है, किन्तु काल के स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर भिन्नता है। श्वेताम्बर परम्परा काल को अणु नहीं मानती तथा व्यावहारिक काल को समयक्षेत्रवर्ती तथा नैश्चयिक काल को लोक-अलोक प्रमाण मानती है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोक व्यापी और अणु रूप है। कालाणु असंख्य हैं, लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित हैं। आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर बैठाते हुए लिखते हैं-'काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चय दृष्टि में काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है, इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। काल द्रव्य दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार अस्तिकाय है। श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग पाँच हैं-'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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