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श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४-१ अक्टू.-दिस. ०९-जन.-मार्च १०
जैन दर्शन में काल की अवधारणा
डॉ. सुदर्शन मिश्र
'काल' शब्द का प्राचीनतम उल्लेख हमें ऋग्वेद में उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ वैदिक विद्वान् अधमर्षण ने संवत्सर किया है। अथर्ववेद में काल को नित्य पदार्थ स्वीकार किया गया है और उससे प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति मानी गयी हैं। उपनिषदों में भी 'काल' शब्द विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में 'काल' शब्द को दिष्ट, हठ, भव्य, भवितव्य, विहित, मागधेय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। योग, सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते। पातञ्जल योगसूत्र में भी काल की वास्तविक सत्ता नहीं मानी गई है। काल वस्तुगत सत्य नहीं है। बुद्धिनिर्मित तथा शब्दज्ञानानुपाती है। व्युत्थितदृष्टिवाले व्यक्तियों को वह वस्तु स्वरूप की तरह अवभासित होता है। शंकर, रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ सम्प्रदाय ने भी काल को वास्तविक पदार्थ नहीं माना है। बौद्ध दर्शन के अनुसार 'काल व्यवहार के लिए कल्पित संज्ञा है।
आधुनिक विज्ञान भी काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मान रहा है। उसके अनुसार काल Subjective है। Stephen Howking के शब्दों में आधुनिक विज्ञान सम्मत काल की अवधारणा को हम समझ सकते हैं-'Our views of nature of time have changed over the years. Up to the begining of this century people belived in a absolute time. That is each event could be labeled by a number called 'time' in a unique way, and all good clocks would agree on the time interval between time events. However, the discovery that the speed of light appeared the same to every observer, no matter how he was moving, led to the theory of relativity-and in that one had to abandon the idea that there was a unique absolute time. Instead, each observer would have his own measure of time as recorded by a colck that he carried. Clocks carried * प्रधानाचार्य, वी.एस.एस.कॉलेज, बचरी-पीरो, भोजपुर (बिहार)