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२८ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
अन्त में, धार्मिक-सहिष्णुता और विभिन्न धर्मों के बीच मैत्रीभाव के सम्बन्ध में आचार्य अमितगति द्वारा रचित निम्न सुन्दर पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूँगा
सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ,
सदा ममात्मा विदधातु देव५।। हे प्रभु! प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणीजनों के प्रति समादरभाव, दुःखी एवं पीड़ितजनों के प्रति कृपाभाव तथा विरोधियों के प्रति माध्यस्थभाव-समताभाव मेरी आत्मा में सदैव रहे। सन्दर्भ-सूची १. N. M. Tatia, Studies in Jain Philosophy, P.V. Research Institute
Varanasi-5, 1958, P. 2. २. (१) भगवती (अभयदेववृत्ति), ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम,
१९३७,१४१७, पेज ११८। (२) अभिधान राजेन्द्र कोष भाग-२, पेज-९५९ और कल्पसूत्र टीका, विनयविजयजी द्वारा सम्पादित, १२७ ज-१२० में उद्धृत। ३. उत्तराध्ययनसूत्र, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९७२, २३/२५। ४. वही-२३/२५। ५. षड्दर्शनसमुच्चय (गुणरत्नवृत्ति), महेन्द्रकुमार जैन द्वारा सम्पादित, भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली, द्वितीय संस्करण, १९८१, पेज-४६१।। ६. लोकतत्त्वनिर्णय, हरिभद्र, जैनग्रन्थ प्रकाशनसभा अहमदाबाद विक्रम, १९६४
३८वीं पंक्ति। ७. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमृतचन्द्र, द सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, अजिताश्रम
लखनऊ, १९३३। ८. हेमचन्द्र १/२२। ९. (१) आवश्यकनियुक्ति, सम्पादित, श्री विजयजिनेसूरीश्वर, हर्षपुष्पामृत
जैनग्रन्थमाला लाखाबावक, शान्तिपुरी, सौराष्ट्र, ७६। (२) विशेषावश्यकभाष्य, एल.डी. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद, १९६८,
२७४८। १०. प्रो. एस. मुखर्जी, Foundation of World Peace, Ahinsa and Anekanta,
वैशाली इन्स्टीट्यूट रिसर्च बुलेटिन नं. १ पेज २२९।