SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म में धार्मिक-सहिष्णुता की स्थापना के मूल आधार : २७ ऐतिहासिक तथ्यों से भी पता चलता है कि जैनों द्वारा अन्य धर्मों के देवी-देवताओं के मन्दिर बनवाए गए थे, वे उनके प्रति समादरभाव प्रदर्शित करते हैं। आचार्य सोमदेव अपने ग्रन्थ यशत्तिलक-चम्पू में लिखते हैं कि-'जहाँ धर्म के नाम पर विकृति नहीं है, लोग संयमी जीवन को अंगीकार करते हैं, वहाँ देश में प्रचलित सभी परम्पराओं का आदरभाव के साथ पालन किया जाता है।' जैनाचार्य विश्व के सभी धर्मों के सह-अस्तित्व में विश्वास करते हैं, परन्तु एकता से उनका आशय सर्वग्राही एकता से नहीं है, अपितु धर्मों की उस विशेष प्रकार की एकता से है, जिसमें कि सभी धर्मों में समान रूप से प्रतिपादित सद्गुणों के आधार पर वे सभी धर्म परस्पर एक-दूसरे से जुड़े तथा जिसमें प्रत्येक धर्म का स्वतन्त्र अस्तित्त्व एवं पहचान अक्षुण्ण रहे, साथ ही सभी धर्मों के प्रति समादरभाव हो। दूसरे शब्दों में, वे सभी धर्मों के सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्त्व और मानव-जाति में शान्ति स्थापित करने के लिए कार्य करने में विश्वास करते हैं। धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा को रोकने एवं संघर्षों को समाप्त करने के लिए कुछ लोग एक विश्व-धर्म का नारा दे सकते हैं, परन्तु न तो यह संभव है और न ही व्यावहारिक। चूँकि मानवीय-विचारों में विविधता विद्यमान है, अतः धार्मिक विचारधाराओं में भिन्नता स्वाभाविक है। 'नियमसार' में कहा गया है कि इस जगत में भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यक्ति हैं और उनके भिन्न-भिन्न कर्म या गतिविधियाँ हैं और उनकी क्षमताएँ एवं योग्यताएँ भी भिन्न-भिन्न हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म के क्षेत्र में होने वाले उग्र विवादों या धर्म के नाम पर निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए होने वाले आन्दोलनों में कभी भी अपने-आपको संलिप्त नहीं करे। समदर्शी आचार्य हरिभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ऋषियों के उपदेशों मे जो भिन्नता है, वह उपासकों की योग्यताओं की भिन्नता या उन ऋषियों के दृष्टिकोण में भिन्नता या देशकालगत भिन्नता के आधार पर है। जिस प्रकार से एक वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उनकी प्रकृति की भिन्नता, अथवा रोग की भिन्नता के आधार पर भिन्न-भिन्न औषधि प्रदान करता है, यही बात धार्मिकउपदेशों की भिन्नता पर भी लागू होती है। ___इस प्रकार साधकों या उपासकों में देश, काल, परिस्थिति, वैयक्तिक-योग्यता और स्वभावगत विविधताएँ तो अपरिहार्य हैं, अतः इन विविधताओं के कारण होने वाले धार्मिक-संघर्षों का निराकरण करने के लिए मानवीय-समाज में एक उदार दृष्टिकोण और विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्दता विकसित करना आज की चरम आवश्यकता है।
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy