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२६ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
ही लगते हैं। वे कपिल के लिए भी महामुनि शब्द का प्रयोग कर उनके प्रति अपना आदरभाव प्रकट करते हैं। विभिन्न विरोधी दार्शनिक-विचारधाराओं में किस प्रकार से संगति स्थापित की जा सकती है, यह ग्रन्थ इसका एक अच्छा उदाहरण है। विश्वधर्म के इतिहास में सम्प्रदायवाद के विरुद्ध हरिभद्र की यह सहिष्णुदृष्टि बेजोड़ और श्लाघ्य है।
इन साहित्यिक-प्रमाणों के साथ ही जैनों की धार्मिक-सहिष्णुता के कुछ अभिलेखीय-प्रमाण भी मिलते हैं। कुछ जैनाचार्य, जैसे रामकीर्ति एवं जयमंगलसूरि ने क्रमशः तोकलजी और चामुण्डा के मन्दिर के लिए प्रशस्ति-काव्य लिखे। इसके अतिरिक्त कुमारपाल आदि जैन राजाओं ने जैन-मन्दिरों के साथ ही भगवान् शिव और विष्णु के मन्दिरों का भी निर्माण कराया था। ____ अन्त में, मैं यह कहना चाहूँगा कि जैनधर्म का अनेकान्तवाद धार्मिकसहिष्णुता की एक निर्दोष दार्शनिक-आधारशिला है। अपने सम्पूर्ण ऐतिहासिक कालक्रम में धर्म के नाम पर होने वाले विवादों में व्यावहारिक रूप से जैन धर्म कभी भी संलिप्त नहीं रहा है और न ही दूसरे धर्म के लोगों को क्रूरतापूर्वक सताने के लिए उसने कभी कोई प्रयास किया है। उसने सदैव ही धार्मिक-सहिष्णुता और सभी धर्मों के बीच मैत्रीभाव में विश्वास किया है।
यद्यपि जैन-आचार्य विभिन्न धर्मों को मिथ्यादृष्टि और सम्यकदृष्टि के आधार पर वर्गीकृत करते हैं, फिर भी उनके अनुसार जो एकांतिक दृष्टिकोण रखता है, अर्थात् केवल अपने धर्म को ही सत्य समझता है और अन्य धर्मों को बिल्कुल ही असत्य, तो यह मिथ्यादृष्टि है। वहीं अपने विरोधियों के धर्म एवं विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रहरहित होकर उनमें भी सत्यता को देखना सम्यक् दृष्टिकोण है। यहाँ यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि जैनधर्म सभी धर्म-दर्शनों का समुच्चय कहा गया है। (मिच्छादसंणसमूह) सिद्धसेन कहते हैं-'जिनोपदेश व्यापक एवं उदार होते हैं, क्योंकि उनमें सभी दर्शनों और विचारधाराओं का समावेश होता है। उसमें सभी एकपक्षीय विचारधाराओं और दर्शनों के प्रति भी समादरभाव प्रस्तुत किया गया है, वह अमृतरूप और मुमुक्षुजनों के लिए आसानी से ग्राह्य है।
रहस्यवादी जैनसंत आनंदघनजी (१७वीं शताब्दी) कहते हैं-'जिस प्रकार से समुद्र अपने में सभी नदियों को समाहित कर लेता है, ठीक उसी प्रकार से जैनधर्म भी सभी धर्मों को अपने में समाहित कर लेता है।' इसी बात को आगे वे बड़ी सुन्दरता के साथ प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सभी दर्शन (षड्दर्शन) जिन के अंग हैं और जिन का उपासक सभी दर्शनों की उपासना करता है।