________________
जैनधर्म में धार्मिक-सहिष्णुता की स्थापना के मूल आधार : २३
न होकर राग और द्वेष से ऊपर उठ जाना है। जैनाचार्य व्यक्ति के गुणों की उपासना/ वंदना करते हैं, व्यक्ति की नहीं। जैन-परम्परा के परम-पवित्र नमस्कार-महामन्त्र में जिन पाँच पदों-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की वंदना की जाती है, वे व्यक्तिवाचक अर्थात् महावीर, ऋषभ या अन्य किसी के प्रति न होकर गुणवाचक हैं। नमस्कार-महामन्त्र जैनों की धार्मिक-उदारता और सहिष्णुता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। इस मन्त्र के पाँचवें पद में विश्व के सभी संतों का वंदन किया जाता है। इसमें आए हुए 'लोए' और 'सव्व' शब्दों को तो धार्मिकउदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा सकता है। वस्तुतः, वंदन व्यक्ति का न होकर उसके आध्यात्मिक-गुणों के विकास के प्रति किया जाना चाहिए, परन्तु हमारी स्थिति यह है कि हम तो अपने-अपने आराध्यों के नाम को लेकर वादविवाद करते रहते हैं, यद्यपि नामों का भेद अपने-आप में कोई अर्थ नहीं रखता है। मजे की बात यह है कि सभी आराध्य अन्तिम रूप से तो आत्मा की सर्वोत्तम अवस्था या परमात्मा की ओर ही संकेत करते हैं। आचार्य हरिभद्र 'योगदृष्टिसमुच्चय' में कहते हैं-'आत्मा की सर्वोत्तम अवस्था लौकिक-जगत् की सभी अवस्थाओं से श्रेष्ठ है, जिसे 'निर्वाण' के नाम से जाना जाता है। वह मूलभूत एवं अपरिहार्य रूप से एक ही है, फिर चाहे हम उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारें, जैसे-सदाशिव कहें, परब्रह्म कहें, सिद्धात्मा कहें या तथागत कहें, आदि।८ वे न केवल सामान्य अर्थ में, बल्कि व्युत्पत्ति के आधार पर भी वही भावार्थ बताते हुए ‘लोकतत्त्वनिर्णय' में कहते हैं-'जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान हैं, वह फिर ब्रह्मा हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन, हम उसे प्रणाम करते हैं।' इसी बात को आगे अकलंक, योगिन्दु, मानतुंग, हेमचन्द्र
आदि तथा मध्ययुग के अनेक जैन-विचारकों ने भी अधिक बल प्रदान किया है। भगवान् शिव की पूजा करते हुए जैन आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं-'मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ, जिनके संसार-परिभ्रमण के कारणभूत राग-द्वेष के बीज समाप्त हो चुके हैं, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो या जिन ।' ___अतः राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित होकर विषय-वासनाओं से ऊपर उठ जाना ही महत्त्वपूर्ण है, यही आध्यात्मिक-विकास की परम अवस्था है, अन्य बातों अर्थात् नाम आदि को लेकर विवाद करने का कोई महत्त्व नहीं है, वे सभी मिथ्याभ्रम हैं। आदर, सम्मान, प्रणाम या वंदन आदि के प्रति जैनों की यह उदारता महावीर के पूर्व भवों से सम्बन्धित दंतकथाओं से भी प्रमाणित होती है। यह कहा जाता है कि महावीर ने अपने पूर्व भवों में अनेक बार अन्य