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________________ २२ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १/ अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१० मक्ति के उपायों के सम्बन्ध में भी जैनाचार्यों का दृष्टिकोण सदैव ही उदार रहा है। वे कभी भी यह नहीं मानते हैं कि केवल उनकी साधना-पद्धति या धार्मिकसाधना ही व्यक्ति को मुक्ति की मंजिल तक पहुँचाने का एकमात्र उपाय है। उनकी दृष्टि में बाह्य साधना नहीं, अपितु व्यक्ति की मनोवृत्ति वह तत्त्व है, जो धार्मिकसाधना/उपासना को फलदायी बनाती है। आचारांगसूत्र में उल्लेख किया गया है कि 'जो बन्धन के कारण हैं, वे ही मुक्ति के उपाय भी हो सकते हैं।३ आचार्य हरिभद्र अपने ग्रन्थ उपदेशतरंगिणी में इसी बात को और अधिक स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि 'मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है, न दिगम्बर रहने से, तार्किक-वादविवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है, व्यक्तिविशेष की सेवा करने से भी मुक्ति संभव नहीं है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों, अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है।' यदि हम यह स्वीकार करें कि देश, काल और साधकों की रुचि एवं योग्यतागत विविधता के कारण विविध प्रकार की साधनाओं का अस्तित्व है और साथ ही धार्मिक-जीवन में आन्तरिक-पवित्रता (कषायमुक्ति) पर अधिक ध्यान दें, तो निश्चित ही हम दूसरों की धार्मिक-साधनाओं की निन्दा नहीं कर सकते हैं। अनेकान्तवादी कभी भी अस्तित्ववान विविध साधनाओं को सत्य एवं मिथ्या की श्रेणी में विभाजित नहीं करता है। वे तभी मिथ्या होते हैं, जब वे दूसरे धर्मों के सत्यता-मूल्य को नकारते हैं५। अनेकान्तवाद के व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण ने जैनाचार्यों को दूसरों के प्रति आचार-विचार में सहिष्णु होने की दृष्टि दी है। जैनाचार्यों के इस सहिष्णु नजरिए का प्रतिपादन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी (१७वीं शताब्दी) निश्चयपूर्वक कहते हैं कि एक सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी धर्म की अवमानना नहीं करता है, बल्कि सभी धर्मों के साथ उसी प्रकार से समान व्यवहार करता है, जिस प्रकार से एक पिता उसके लड़कों के साथ समान व्यवहार करता है। उसका दृष्टिकोण किसी के प्रति राग या द्वेष पर आधारित नहीं होता है। स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) का सच्चा प्रेमी वही है, जो सभी धर्मों एवं आस्थाओं के प्रति समादरभाव रखता है। सभी धर्मों के प्रति आदरभाव होना ही धार्मिक होने का सार है। धर्मग्रन्थों का एकपक्षीय गहन ज्ञान होने की तुलना में उनका अल्पज्ञान भी यदि व्यक्ति को उदार होने के लिए प्रेरित करता है, तो वह अधिक मूल्यवान् है। व्यक्तिपूजा नहीं, अपितु गुणोपासना-सहिष्णुता की आधारशिला जैनधर्म व्यक्तिपूजा का विरोध करता है, क्योंकि इससे मन में आग्रह और असहिष्णुता पैदा होती है। जैनाचार्यों के लिए उपासना का आधार व्यक्तिविशेष
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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