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२० : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १ / अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
जीवनमूल्यों का खण्डन करता है और इस प्रकार दूसरों की भावनाओं को चोट पहुँचाता है। अनेकान्तवाद विचारों की अहिंसापूर्वक सत्य की खोज करता है।
जैनाचार्यों की मान्यता है कि सत् या वस्तुतत्त्व अनेक विशेषताओं और गुणों का पुंज है। यह अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और उसके सम्बन्ध में अनेक कथन प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यहाँ तक कि किसी वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में दो विरोधाभासी वक्तव्य भी अपेक्षाभेद से सत्य हो सकते हैं। चूँकि हमारा ज्ञान सीमित है और सापेक्ष है, इसलिए हम सत् या वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में एक बार में कुछ ही पक्षों या पहलुओं को जान सकते हैं, अथवा अनुभव कर सकते हैं। सत् को उसके पूर्ण रूप में देख पाने में हम असमर्थ हैं। यहाँ तक कि एक सर्वज्ञ के लिए भी उसे अपेक्षा दृष्टि के बिना जान पाना या कह पाना असंभव है। इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है-कल्पना कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणों से एक वृक्ष का चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे कि एक ही वृक्ष के विभिन्न कोणों से विभिन्न व्यक्तियों द्वारा हजारों-हजार चित्र लिए जा सकते हैं। साथ ही इन हजारों-हजार चित्रों के बावजूद भी वृक्ष का बहुत-कुछ भाग ऐसा है, जो कैमरे की पकड़ से अछूता रह गया है। पुनः जो हजारों-हजार चित्र भिन्नभिन्न कोणों से लिए गए हैं, वे एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं, यद्यपि वे सभी उसी वृक्ष के चित्र हैं। केवल उसी स्थिति में दो चित्र समान होंगे, जब उनका कोण या वह स्थल जहाँ से चित्र लिया गया है, एक ही हो। इस प्रकार उन चित्रों में अपूर्णता और भिन्नता-दोनों ही बातें हैं। यही विविधता मानवीय-ज्ञान और कथन के सम्बन्ध में भी है।
___ अतः सत् के सम्बन्ध में हम केवल आंशिक और सापेक्ष विचार ही रख सकते हैं। सापेक्ष-दृष्टिकोण के बिना सत्य को जानना और उसकी अभिव्यक्ति करना हमारे लिए असंभव है। यद्यपि प्रत्येक दृष्टिकोण या विचार वस्तुतत्त्व की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है, परन्तु वह उसकी अपूर्ण और सापेक्ष-तस्वीर ही होती है। इस प्रकार हमारे आंशिक दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष-ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दे। जैन-आचार्यों के अनुसार प्रतिपक्षों की विचारधारा के सत्यांशों को स्वीकार कर उनका भी हमें सम्मान करना चाहिए।
जैनाचार्यों का अनेकान्तवाद व्यक्ति को मतान्ध होने की अनुमति नहीं देता है और उसकी एकांगी सोच को भी निषिद्ध करता है। वह तो उदार दृष्टिकोण