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________________ जैनधर्म में धार्मिक-सहिष्णुता की स्थापना के मूल आधार : १९ एक रागी या आसक्त व्यक्ति इस कथन में विश्वास करता है कि 'जो मेरा है, केवल वही सत्य हैं। ठीक इसके विपरीत एक अनासक्त या वीतरागी व्यक्ति इस कथन में विश्वास करता है कि 'जो सत्य है, वही मेरा है। क्रान्तिदर्शी आचार्य हरिभद्र (ईसा की आठवीं शताब्दी) रचित 'षड्दर्शनसमुच्चय' कृति पर अपनी टीका में आचार्य गुणरत्नसूरि (ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी पूर्व) ने कुछ पंक्तियाँ उद्धत की हैं, जिनका आशय यह है कि 'राग-द्वेष से ग्रसित व्यक्ति पहले से ही जो कुछ उसकी मान्यता होती है, केवल उसे ही युक्तिसंगत प्रमाणित करने का प्रयास करने में लगा रहता है, जबकि वीतरागी या तटस्थ भाव रखने वाला व्यक्ति तार्किक-आधार पर जो सत्य होता है, उसे स्वीकार करता है। जैनधर्म प्रज्ञापूर्ण विचारणा का समर्थक है। धार्मिक-क्षेत्र में विवेकपूर्ण विचारणा का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं-'न तो महावीर के प्रति हमारा मोह है, न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष। जिसकी भी बात युक्तिसंगत है, उसे हमें ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार से सम्यक्दर्शन (श्रद्धा) की व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र (ईसा की दसवीं शताब्दी) कहते हैं कि अन्धविश्वास से प्रेरित होकर देव, गुरु या धर्म पर श्रद्धा रखना मूढ़ता है। इस प्रकार जब धर्म विवेकाभिमुख है, तो वहाँ अन्धविश्वास या असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं होता है, अतः जो भी व्यक्ति या समाज धर्म के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण दृष्टिकोण रखता है, वह निश्चित ही मताग्रही और असहिष्णु नहीं होगा। अनेकान्तवाद-धार्मिक-सहिष्णुता का दार्शनिक-आधार ___ मतान्धता एवं धर्मान्धता निरपेक्षतावाद/एकान्तवाद की सन्ताने हैं। एक चरमपंथी या निरपेक्षतावादी समझता है कि जो कुछ वह प्रतिपादित करता है या कहता है, वही सत्य है और जो कुछ भी दूसरे कहते हैं, वह मिथ्या है, जबकि सापेक्षतावादी चिन्तक का दृष्टिकोण यह होता है कि यदि किसी वस्तु, विचार, घटना आदि के सम्बन्ध में दो भिन्न-भिन्न सन्दर्भो में विचार किया जाए, तो वह और उसका प्रतिपक्षी-दोनों ही सही हो सकते हैं। इस प्रकार सापेक्षतावादी चिन्तक अन्य धर्मों और विचारधाराओं के प्रति सहिष्णु-दृष्टिकोण अपनाता है। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर ही धार्मिक-सहिष्णुता की अवधारणा आधारित है। जैनाचार्यों की दृष्टि में अहिंसा ही धर्म का सार है और उसी से अनेकान्तवाद की अवधारणा उत्पन्न होती है। एकान्तवाद या निरपेक्षतावाद 'विचारों की हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। वह अपने विरोधियों की विचारधारा और
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
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