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१८ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १/ अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
प्रज्ञा-अन्धश्रद्धा का नियन्त्रक तत्त्व
जैनधर्म के त्रिरत्नों में से प्रथम सम्यक्दर्शन अर्थात् सम्यक्श्रद्धा की आत्मा की मुक्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु इसके विपरीत अन्धश्रद्धा असहिष्णुता की जननी है, इसलिए जैनधर्म कभी भी अन्धश्रद्धा का समर्थन नहीं करता है। जैनाचार्य निश्चयात्मकतापूर्वक कहते हैं कि सम्यक्ज्ञान से ही सम्यक्दर्शन (श्रद्धा) होगा। सम्यक्दर्शन (श्रद्धा) सम्यक्ज्ञान (विवेक/प्रज्ञा) का अनुगामी होना चाहिए। जैनाचार्यों के अनुसार विवेक और श्रद्धा-दोनों ही एकदूसरे के पूरक हैं और दोनों के बीच कोई विवाद नहीं है। जैनाचार्य इस बात को दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि विवेकरहित श्रद्धा अन्धी होती है और सम्यकदर्शन (श्रद्धा/विश्वास/आस्था) का विकास सम्यक्ज्ञान (विवेक बुद्धि/प्रज्ञा) के बिना सम्भव नहीं है। सम्यक्ज्ञान और सम्यक्दर्शन में समन्वय होना चाहिए। वे कहते हैं कि धार्मिक-आचार के नियमों का प्रज्ञापूर्वक समीक्षा एवं मूल्यांकन किया जाना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य केशी के समक्ष अपने इस विचार को दृढ़तापूर्वक रखते हैं कि दोनों की संघ-व्यवस्था में (परम्परा में) आचार के बाह्य निषेधों में जो अन्तर है, उसका तर्क या विवेक के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए। वस्तुतः, विवेकबुद्धि के आधार पर ही विधिनिषेधों या धार्मिक-आचार के नियमों की सत्यता का सम्यक् मूल्यांकन हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति यह कहता है कि धर्म केवल श्रद्धा या विश्वास या आस्था पर आधारित है और विवेक का इसमें कोई स्थान नहीं है, तो निश्चित तौर पर वह एक ऐसा एकांगी दृष्टिकोण अपना रहा है, जो यह मानकर चलता है कि केवल उसका धर्म, धर्मग्रन्थ, धर्मगुरु और साधना-पद्धति ही सत्य हैं तथा अन्य धर्म, धर्मग्रन्थ, धर्मगुरु और साधना-पद्धति मिथ्या हैं। वह यह भी दृढविश्वास करता है कि केवल उसका धर्म ही मानवजाति को संकट से उबार कर विश्वशान्ति सुनिश्चित कर सकता है और केवल उसका साधना-मार्ग ही परम् श्रेय का अनुभव कराने वाला एकमात्र विकल्प है तथा उसके धर्मग्रन्थों में वर्णित नियम ही समीचीन हैं, किन्तु ऐसा व्यक्ति अपने धार्मिक नियमों का तर्कबुद्धि प्रज्ञा/विवेक के आधार पर मूल्यांकन करने में असमर्थ रहता है। इसके स्थान पर यदि कोई व्यक्ति निश्चयपूर्वक यह कहता है कि धार्मिक-जीवन में विवेक/ प्रज्ञा/तर्कबुद्धि की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, तो वह निश्चित ही अपने धार्मिक नियमों/सिद्धान्तों या रीति-रिवाजों का विवेक बुद्धि से विश्लेषण या मूल्यांकन या समीक्षा कर तदनुसार आचरण करेगा।