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संस्कृत छाया :
इतर-महिला-जनेऽपि खलु दृष्टिपातो न भवति युक्त इति ।
किं पुनःश्रमणी-विषयेऽबोधिबीजस्य मूले? ।।१७९।। गुजराती अनुवाद :
अन्य महिलाजनने विषे पण दृष्टिपात करवो ते युक्त नथी तो पछी अबोधिना बीजरूप साध्वीनां विषयमां तो कहेवार्नु ज शु? हिन्दी अनुवाद :___अन्य महिलाओं के विषय में भी दृष्टिपात करना उचित नहीं है, तो फिर अबोधि के बीजरूप साध्वी के विषय में तो कहना ही क्या? गाहा :
ता उज्झिय अविवेयं रागं अवहत्थिऊण भावेण ।
परिहरसु सव्वहच्चिय दिट्ठी-कुसीलत्तणं एयं ।। १८०।। संस्कृत छाया :
तस्माद् उज्झित्वाऽविवेकं रागमपहस्त्य भावेन ।
परिहर सर्वथा एव दृष्टि कुशीलत्वमेतद् ।।१८।। गुजराती अनुवाद :
तेथी अविवेकने दूर करीने टागना भावने छोडीने दृष्टिनां कुशीलपणाना विकारनो सर्वथा त्याग कर। हिन्दी अनुवाद :
अत: अविवेक को दूरकर राग-भाव को छोड़कर दृष्टि की सुशीलता के विकार का त्याग करो।
(धनवाहन द्वारा आत्मनिंदा) गाहा :
एवं गुरुणा भणिओ संविग्गो सोवि चिंतए एवं ।
अइराग-पर-वसस्स ओ धी! धी! मह निविवेयस्स ।।१८१।। संस्कृत छाया :
एवं गुरुणा भणितः संविज्ञ सोऽपि चिन्तयत्येवम् । अतिराग-परवशस्य ओ धिग्! धिग्! मम निर्विवेकस्य ।।१८१।।
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