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(गुरुजी द्वारा पुनः प्रतिबंध) गाहा :
अविरइ-जुवइ-जणेवि हु सवियार-पलोयणम्मि साहुस्स ।
पायच्छित्तं गरुयं भणियं सुत्ते जिणिंदस्स ।। १७७।। संस्कृत छाया :
अविरति-युवति-जनेऽपि खलु सविकार प्रलोकने साधोः ।
प्रायश्चित्तं गुरुकं भणितं सूत्रे जिनेन्द्रस्य ।।१७७।। गुजराती अनुवाद :
गृहस्थ स्त्री (अविरति युवतिजन) ने सविकार दृष्टि वडे जोवामां पण साधुने जिन सिद्धांतमां मोटुं (गुरु) प्रायश्चित्त कह्यु छ। हिन्दी अनुवाद :____ गृहस्थ स्त्री (अविरति युवतियों) को विकारयुक्त दृष्टि से देखने में भी साधु को जैन सिद्धांत में बहुत बड़ा प्रायश्चित्त कहा गया है। गाहा :
जं पुण साहुणि-विसए सवियार-पलोयणं तु साहुस्स ।
तं भह! गुरु-अणत्थस्स कारणं वन्नियं समए ।। १७८।। संस्कृत छाया :
यत्पुनः साध्वी-विषये सविकारप्रलोकनन्तु साधोः ।
तद् भद्र! गुर्वनर्थस्य कारणं वर्णितं समये ।।१७८।। गुजराती अनुवाद :
तो पछी साध्वीनां विषयमा विकार सहित जोवू ते तो भद्र! मोटा अनर्थकारण छे तेम शास्त्रमा कहेलुं छे। हिन्दी अनुवाद :
तो फिर साध्वी के विषय में विकार सहित देखना तो भद्र! बहुत बड़े अनर्थ का कारण है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। गाहा :
इयर-महिला-जणेवि हु दिट्ठी-पाओ न होइ जुत्तोति । किं पुण समणी-विसए अबोहि-बीयस्स मुलम्मी? ।।१७९।।
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