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१६ : श्रमण, वर्ष ६०-६१, अंक ४, १/ अक्टू.-दिसम्बर ०९-जन.-मार्च-१०
झगड़ रहे हैं, परन्तु उसकी आत्मा की चिन्ता नहीं कर रहे हैं। यदि हम धार्मिकसहिष्णुता को बनाए रखना चाहते हैं और इस पृथ्वी पर शान्ति सुनिश्चित करना चाहते हैं, तो धर्म के बाह्य रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, आडम्बर, विधि-विधान आदि को सम्पन्न करने के स्थान पर हमें धर्म के सारतत्त्व एवं मूलभूत साध्य के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए।
धर्म के अंग्रेजी पर्याय Religion का अर्थ है –पुनः जोड़ना। इस व्युत्पत्तिमूलक अर्थ के आधार पर हम कह सकते हैं कि जो कुछ भी मानवजाति को जोड़ने के स्थान पर तोड़ना है, वह कभी भी धर्म का सच्चा स्वरूप नहीं हो सकता। हमें इस तथ्य से अवगत होना चाहिए कि धर्म अपने मूल स्वरूप में कभी भी हिंसा, असहिष्णुता, मताग्रहपूर्ण नजरिए का समर्थन नहीं करता है। धर्म का वास्तविक स्वरूप तो वह है जो कि मानव-समाज में विद्वेष के स्थान पर सहिष्णुता और घृणा के स्थान पर परस्पर स्नेह एवं उदारता की भावना का विकास करता है। अन्धविश्वास ही असहिष्णुता का बीज
धर्मोन्माद और असहिष्णुता फैलाने वाले कारणों में अन्धविश्वास प्रमुख है। यह मिथ्यात्वमोह का परिणाम है, अतः धर्म के प्रति यह अविवेकपूर्ण दृष्टिकोण है। जैनाचार्यों के अनुसार मोह (मूर्छा) बंधन का प्रधान कारण है। यही विपर्यस्तबुद्धि का भी कारण है। जैनधर्म में मोह के विभिन्न प्रकार बताए गए हैं उनमें दर्शन-मोह या दृष्टिराग (अन्धविश्वास) अपनी प्रकृति के अनुसार सर्वोपरि है। यह धार्मिक-असहिष्णुता का केन्द्रीय तत्त्व है। इसके कारण व्यक्ति अपनी धार्मिक मान्यताओं और आस्थाओं को ही एकमात्र सत्य समझता है और अपने विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानता है। इस प्रकार मोह या रागभाव जहाँ एक ओर व्यक्ति को किसी से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर वह उसे कहीं से तोड़ता भी है, इसलिए वीतरागता सम्यक् दृष्टिकोण की सर्वप्रथम शर्त है। दुराग्रहपूर्ण मनोवृत्ति के कारण व्यक्ति वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में सम्यक विचार करने में ठीक उसी प्रकार असमर्थ हो जाता है, जिस प्रकार पीलिया की बीमारी से ग्रस्त कोई व्यक्ति या अपनी आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ाए हुए व्यक्ति वस्तुओं का सही रंग देखने में असमर्थ हो जाता है। वस्तुतः दार्शनिक-चिन्तन के क्षेत्र में राग और द्वेष-दो बहुत बड़े शत्रु हैं। सत्य तो वीतरागदृष्टि से ही प्रकट हो सकता है। जैनाचार्य दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि वीतरागभाव न केवल व्यक्ति का सहज स्वभाव है, बल्कि सत्य की खोज में यह परमावश्यक भी है। एक