SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म में धार्मिक-सहिष्णुता की स्थापना के मूल आधार : १५ मुक्ति को उपलब्ध होगा। (संबोधप्रकरण, १/२) इस प्रकार मन की समत्वभाव-अवस्था को प्राप्त करना या तनावों से मुक्त होना ही सभी धर्मों का सारतत्त्व है। इसके अतिरिक्त, जब हम धर्म के व्यावहारिक या सामाजिक-पहलू की बात करते हैं, तो इसका आशय आचरण में अहिंसा का पालन करने के अलावा कुछ भी नहीं है। आचारांग (१/४/१) में भगवान् महावीर कहते हैं___'भूतकाल में जो तीर्थंकर भगवान् हो गए हैं, वर्तमान में जो तीर्थंकर हैं और भविष्य में जो तीर्थंकर होंगे वे सब इस प्रकार से कहते हैं, बोलते हैं, समझाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राणी (द्वीन्द्रियादि), सभी भूत (वनस्पति), सभी जीव (पंचेन्द्रिय) और सभी सत्तों (पृथ्वीकायादि) को दण्डादि से नहीं मारना चाहिए, उन पर आज्ञा नहीं चलानी चाहिए, उन्हें दास की भाँति अधिकार में नहीं रखना चाहिए, उन्हें शारीरिक व मानसिक सन्ताप नहीं देना चाहिए और उन्हें प्राणों से रहित नहीं करना चाहिए। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है।' आचार्य हरिभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि धार्मिक अनुष्ठान, विधि-विधान, कर्मकाण्ड आदि का निष्पादन करना धर्म का केवल बाहरी रूप है। अपने मूल स्वरूप में धर्म मनुष्य के अन्दर रहे हुए मनोविकारों के उपशमन एवं भौतिकसुखों के प्रति उसकी उद्दाम लालसा को नियन्त्रित करने का उपाय है, साथ ही वह व्यक्ति को उसके आत्मस्वरूप का बोध कराने का साधन भी है। इस प्रकार जैनाचार्यों की दृष्टि में धर्म का वास्तविक स्वरूप एवं उसका मौलिक उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक-जीवन में समत्वभाव एवं शान्ति की स्थिति को सुनिश्चित करना है। जो कुछ भी चैत्तसिक समत्व और सामाजिक शान्ति को भंग करता है तथा विद्वेष एवं हिंसा फैलाता है, वह धर्म का सच्चा स्वरूप नहीं है, अपितु वह तो धर्म का लबादा ओढ़े हुए शैतान है। आजकल तो धर्म की मूल भावना पीछे छूट गई है और मताग्रह, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड आदि का अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व बढ़ गया है। इस प्रकार धर्म के साध्य को तो हम भुला चुके हैं और उसे केवल साधन के रूप में हमने अपने से चिपका लिया है। प्रार्थना करते समय हमारे लिए आज यह बात अधिक महत्त्व रखती है कि हमारा मुख पूर्व दिशा में होना चाहिए या पश्चिम में, क्योंकि हम प्रार्थना के मूल ध्येय को ही भुला चुके हैं। धर्म का उद्देश्य मनोविकारों पर नियन्त्रण करना है, परन्तु दुर्भाग्य से धर्म के नाम पर हम हमारे मनोविकारों का पोषण कर रहे हैं। वस्तुतः धर्म के बाह्य स्वरूप या उसके शरीर की सजावट के लिए तो हम
SR No.525071
Book TitleSramana 2010 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2010
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy