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पत्रों से जो सुशोभित है, श्रेष्ठ लब्धिरूपी पुष्पों से जो रमणीय प्रतीत होता है, स्वर्ग
और मोक्ष आदि जिसके अनन्य सुखरूपी फल हैं, तीव्र दुःखरूपी ताप से तप्त प्राणियों के अनन्य शरणरूप कल्पवृक्ष के समान चारित्रधर्म जिनाज्ञा के द्वारा विस्तारपूर्वक कहा गया। गाहा :
चवलाई इंदियाइं दुक्ख-निमित्तं च विसय-संगोवि ।
कोहाइणो कसाया निबंधणं दोग्गईए उ ।।१११।। संस्कृत छाया :
चपलानि इन्द्रियाणि दुःखनिमित्तं च विषयसङ्गोऽपि ।
क्रोधादयः कषाया निबन्धनं दुर्गतेस्तु ।।१११।। गुजराती अनुवाद :
इंद्रियो चंचल छे, विषयोनो संग पण दुःखना कारणलप छे अने क्रोध विगेरे कषायो दुर्गति, कारण छे! . हिन्दी अनुवाद :
इन्द्रियाँ चंचल हैं, विषयों की आसक्ति भी दुःखों का कारणरूप है तथा क्रोध आदि कषाय दुर्गति के कारण हैं।
(प्रमाद थी पतन) गाहा :
एक्कसि कओ पमाओ जीवं पाडेइ भव-समुद्दम्मि ।
भीमो य भवो बहुसो पयासिओ तिए परिसाए ।।११२।। संस्कृत छाया :
सकृत् कृतः प्रमादो जीवं पातयति भवसमुद्रे ।
भीमश्च भवो बहुशः प्रकाशितस्तस्यां परिषदि ।।११२।। गुजराती अनुवाद :
एकवार पण करायेलो प्रमाद जीवने अवसमुद्रमा पाडे छ। एम बह प्रकारे भयंकर संसारनुं स्वरूप सूरीश्वरजीर ते सध्यामां प्रकाशित कर्यु। हिन्दी अनुवाद :
एक बार भी किया गया प्रमाद जीव को भवसागर में डाल देता है। इस प्रकार इस संसार के भयंकर स्वरूप को सूरीश्वरजी ने अनेक प्रकार से सभा में प्रकाशित किया।
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